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आल्हा - एक प्रयास

दुनिया यही सिखाती हरदम, सीख सके तो तू भी सीख।  

आदर्शों पर चलकर हासिल, कुछ ना होगा, मांगो भीख।

 

तीखे कर दांतों को अपने, मत रह सहमा औ मासूम।

जंगल का कानून यही है, गीदड़ बन जा पी खा झूम।

 

उनकी तो किस्मत है मरना, हिरण बिचारे सब अंजान।  

कदम कदम पे गहरे गड्ढे, गिर गिर गंवा रहे हैं जान।

 

शेर भेष धर गीदड़ घूमे, जंगल जंगल मचती खोज।

भोले खरगोशों की शामत, सिरा रहे वे बन कर भोज।  

 

हुई दुपहरी, अब तो जागो, कुंभकर्ण ना बन नादान।  

कौंवे शातिर सभी इधर के, ले कर उड़ जाएँगे कान।

 

कितने पूत शहीद हुये पर, मिली अजादी फूटे भाग।

वारिस ही अब भून चबाते, सपने स्वाद भरे हैं साग।

 

देश बना कर जलती भट्टी, सबने चढ़ा रखी है दाल।

हाड़ लहू के देगच में भी, अब तो आ ही जाय उबाल।

 

चीखेँ चलो चलें सब दमभर, ऐसा भीषण कर दें शोर।

छोड़ लंगोटी को भी अपने, भाग चलें सब हलकट चोर।

_____________________________________________

- संजय मिश्रा 'हबीब'

 

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Comment

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Comment by UMASHANKER MISHRA on May 30, 2012 at 11:08pm

बहुत बढ़िया आल्हा

शिराओं में वीर रस का संचार करने वाली

चीखेँ चलो चलें सब दमभर, ऐसा भीषण कर दें शोर।

छोड़ लंगोटी को भी अपने, भाग चलें सब हलकट चोर।

ऐसे आपका प्रयास नहीं  पूर्ण  सफल काव्य है ...बधाई

Comment by आशीष यादव on May 26, 2012 at 9:43am

भरी रवानी है आल्हों मे, दिखलाते भारत के हाल,
रूपक सुन्दर पेश किया है, दिखलाया नेतों का हाल।
बहुत अच्छा लगा आल्हा पढ़कर। यह रूपक का बेहतरीन उदाहरण भी है।
बधाई स्वीकारें

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 25, 2012 at 11:45pm

कितने पूत शहीद हुये पर, मिली अजादी फूटे भाग।

वारिस ही अब भून चबाते, सपने स्वाद भरे हैं साग।

 

देश बना कर जलती भट्टी, सबने चढ़ा रखी है दाल।

हाड़ लहू के देगच में भी, अब तो आ ही जाय उबाल।

आदरणीय  मिश्र 'हबीब' जी तीखे धार वाली रचना ......इस से भी उनके अहम् और पर ना कटें तो उनको चुल्लू भर पानी खोजना चाहिए 

जबरदस्त    आभार  ....भ्रमर ५ 


Comment by AVINASH S BAGDE on May 25, 2012 at 8:34pm

दुनिया यही सिखाती हरदम, सीख सके तो तू भी सीख।  

आदर्शों पर चलकर हासिल, कुछ ना होगा, मांगो भीख।....सही गुस्सा...क्या हल?

 

तीखे कर दांतों को अपने, मत रह सहमा औ मासूम।

जंगल का कानून यही है, गीदड़ बन जा पी खा झूम।....समय क़े साथ चल.

 

उनकी तो किस्मत है मरना, हिरण बिचारे सब अंजान।  

कदम कदम पे गहरे गड्ढे, गिर गिर गंवा रहे हैं जान।...मची हुई झूठी  हलचल.

 

शेर भेष धर गीदड़ घूमे, जंगल जंगल मचती खोज।

भोले खरगोशों की शामत, सिरा रहे वे बन कर भोज।  ....शहर में जंगल!!!

 

हुई दुपहरी, अब तो जागो, कुंभकर्ण ना बन नादान।  

कौंवे शातिर सभी इधर के, ले कर उड़ जाएँगे कान।.....चौकन्ना तू रह हर पल.

 

कितने पूत शहीद हुये पर, मिली अजादी फूटे भाग।

वारिस ही अब भून चबाते, सपने स्वाद भरे हैं साग।....रोये भारती है पल-पल.

 

देश बना कर जलती भट्टी, सबने चढ़ा रखी है दाल।

हाड़ लहू के देगच में भी, अब तो आ ही जाय उबाल।...फिर भी लहू न रहा उबल!!!

 

चीखेँ चलो चलें सब दमभर, ऐसा भीषण कर दें शोर।

छोड़ लंगोटी को भी अपने, भाग चलें सब हलकट चोर।....कारो आप हम देखेंगे कल.


संजय भाई बस!लाजवाब...

आल्हा सीखने को रायपुर आना ही पड़ेगा....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 25, 2012 at 1:18pm

देश बना कर जलती भट्टी, सबने चढ़ा रखी है दाल।

हाड़ लहू के देगच में भी, अब तो आ ही जाय उबाल।

 बहुत सुन्दर समसामयिक  आल्हा ओ बी ओ की जय बोलो जो इस विलुप्त होती हुई विद्या को जीवंत बना रहा है badhaai 

Comment by Yogi Saraswat on May 25, 2012 at 11:47am

हुई दुपहरी, अब तो जागो, कुंभकर्ण ना बन नादान।  

कौंवे शातिर सभी इधर के, ले कर उड़ जाएँगे कान।

बहुत खूब , हबीब साब ! सटीक और सत्य को दर्शाती , खूबसूरत लफ़्ज़ों से सजी बढ़िया ग़ज़ल !

Comment by Sanjay Mishra 'Habib' on May 25, 2012 at 9:07am

आदरणीय बागी जी, प्रदीप कुशवाहा जी, डा बाली जी, इस अनगढ़ प्रयास को सराह्कर उत्साहवर्धन करने के लिए सादर आभार...

आदरणीय कुशवाहा जी, ओ बी ओ के आयोजनों में ही आल्हा को पढ़कर जो समझ पाया उसी आधार पर यह अनगढ़ प्रयास किया है... विधा के शिल्प की विस्तृत जानकारी पाने हेतु यह विद्यार्थी भी उतना ही लालायित है... सादर... प्रतीक्षित...

Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on May 24, 2012 at 6:18pm

"शेर भेष धर गीदड़ घूमे, जंगल जंगल मचती खोज।

भोले खरगोशों की शामत, सिरा रहे वे बन कर भोज."

  संजय भाई बहुत सुंदर आल्हा । अरसा हो गया था इस छंद से वाकिफ हुए। आपने पुराने दिनों की धुने गुनगुनाने पर मजबूर कर दिया बहुत सुंदर समसामयिक आल्हा!!
"

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 24, 2012 at 5:24pm

 आदरणीय संजय  जी, सादर 

बहुत दिनों से आल्हा विधा की जानकारी चाह रहा था आपने सुन्दर प्रस्तुति दी. विधा पर भी जानकारी देने का कष्ट  करें. 
बधाई. 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 24, 2012 at 5:05pm

बहुत खूब संजय भाई, आल्हा अपने रवानी में सफल है, बहुत ही सुन्दर कथ्य, बस आनंद आ गया , बधाई स्वीकार हो |

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