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सूखे पेड़ों से मैंने डटकर के जीना सीखा है,

हरे-भरे पेड़ों से मैंने झुककर जीना सीखा है,

मस्त घूमते मेघों ने सिखलाया मुझको देशाटन,

और बरसते मेघों से सब कुछ दे देना सीखा है।

 

हर दम बहती लहरों से सीखा है सतत्‍ कर्म करना,

रुके हुए पानी से मैंने थम कर जीना सीखा है,

जलती हुई आग से सीखा है जलकर गर्मी देना,

जल की बूंदों से औरों की आग बुझाना सीखा है।

 

सागर से सीखा है सागर जितना बड़ा हृदय रखना,

धरती से सब की पीड़ा का भार उठाना सीखा है,

इतना सीख के भी लगता है कितना ठूंठा ज्ञान मेरा,

रहा अबोध, नहीं समझा कुछ, क्या जीवन से सीखा है।

 

जीवन एक अबूझ पहेली, कौन समझ पाया इसको,

जो सीखा है लगता है क्या यही अभी तक सीखा है?

वे झूठे हैं जो खुद को ज्ञानी कहकर इठलाते हैं,

पर यह सच है उन नादानों ने ही सब कुछ सीखा है।

 

फिर भी है संतोष कि जितना सीखा है वह व्यर्थ नहीं,

और सीख ना पाये जो, वो भी सीखें यह सीखा है।

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Comment by Prof. Saran Ghai on February 24, 2012 at 7:11am

बहुत-बहुत धन्यवाद, ऐसे ही आशीर्वाद देते रहिये - सरन


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on February 22, 2012 at 12:17pm

बहुत खूब प्रोफेसर घई साहिब.

Comment by satish mapatpuri on February 22, 2012 at 12:56am
पूरी ज़िन्दगी सीखने के लिए होती है ........ सच तो यह है  कि यह ज़िन्दगी सीखने के लिए कभी - कभी कम पड़ जाती है ................... इस ख्याल और प्रस्तुति को मैं सलाम करता हूँ प्रोफ़ेसर साहेब
Comment by asha pandey ojha on February 20, 2012 at 7:15pm

bahut hi sunadr w jivan me sikh ko utarne ki prerna deti rachna  

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