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अक्सर मैंने देखा उसको खुद से हीं बातें करते

कभी-कभी बिना कारण हीं खुद में हंसते खुद में रोते

कई दफा तो काटी उसने रातें यूं ही जाग जाग के 

कभी किसी पर अटक गई जो पलकें उसकी बिना झपके 

        

बैठे-बैठे खो जाती है वो अपनी अंजानी दुनिया में 

कितने भाव उभर आते हैं उसकी थकी आँख की डिबिया में 

कोई उसको तार रहा है, क्युं ऐसा उसको लगता है 

कानों में कुछ बोल गया क्या, जब कोई निकट से जाता है 

        

अपनी हीं परछाई उसको किसी और की आभा लगती है 

कभी कहीं दर्पण जो देखे किसी और की छाया दिखती है 

लगता है कोई बहुत दूर से उसका नाम पुकार रहा  

झौंका बनकर कोई हमेशा, उसके तन को सहला रहा 

सच से भागे अँधियारे में, तो सच को वो पाये कैसे 

अपने भ्रम में वो घुट-घुट कर खुदको फिर बचाए कैसे 

रोग लगा ये मन को कैसे, अब तक उसको ज्ञान नहीं 

किसने उसकी तंद्रा तोडी, कुछ भी उसको ध्यान नहीं

"मौलिक व अप्रकाशित" 

अमन सिन्हा

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Comment by AMAN SINHA on June 6, 2022 at 3:39pm

आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर

साहब, 

कई दिनों के बाद आपसे मिले तारिफ से फिर से लिखने का मन कर रहा है। 

धन्यवाद्। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 2, 2022 at 10:43pm

आ. भाई अमन जी, रचना का प्रयास अच्छा है। विषय भी अच्छा है। कुछ टंकण त्रुटियाँ रह गयी हैं देखिएगा। शेष हार्दिक बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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