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"काहे की हमनी के सभ्य हो गइल बानी"

दिन,प्रतिदिन,
हर एक पल,
आपन सभ्यता अउर संस्कृति में
निखार आ रहल बा,
हमनी के हो गईनी,केतना सभ्य,
कौआ ई गीत गा रहल बा
पहिले बहुत पहिले,
जब हमनी के एतना सभ्य ना रहीं,
त रहे चारों तरफ खुशहाली,
लोगन के मिलजुल के,
विचरण रहे जारी,
जेतना पावत रहनी,
प्रेम से खात रहनी,
दोस्तन के भी खिआवत रहनी,
आ कबो-कबो भूखे सुत जात रहनी।।
आज जब हमनी के सभ्य हो गइल बानी,
बाटे सोहात नाही,
दोसरा के रोटी,
छिन के खा रहल बानी,
अउर अपनों से कहत बानी,
छिन लऽ,दोसरों के रोटी
ना देवे त,नोच लऽ बोटी-बोटी,
काहे की हमनी के सभ्य हो गइल बानी,
बहुत पहिले घर के मालिक,
सबके खिआए,बचे जउन रुखा-सूखा,
ऊ ओके खाए,
आज जब आपन सभ्यता,
आसमान छू रहल बा,
घर के का कही,
देश के मालिक,
हींकभर खात बा,
भंडार सजावत बा,
चैन से सुतत बा,
बेंच देत बा,
देशवासियन के काट के पेट,
काहे की हमनी के सभ्य हो गइल बानी.

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on September 6, 2010 at 9:19pm
बहुत खूब .....सभ्यता के वृक्ष के साथ उग आयी खर पतवारों का सटीक विश्लेषण|
Comment by Admin on April 3, 2010 at 3:10pm
राजू भाई रौवा बहुत उम्द्दा रचना लिखले बानी एह खातिर हम सबसे पहीले रौवा के धन्यबाद देहल चाहत बानी, अगर ईहे सभ्यता के परिभाषा बा त हमनी के ऐसन सभ्यता ना चाही जी, असभ्य हो के सभ्यता के दंभ भरल ई कहा के सभ्यता बा ? बहुत बढ़िया राजू जी, ऐसन रचना के आगे भी ईंतजार रही, बहुत बढ़िया जात बानी रौवा लागल रही.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 2, 2010 at 2:51pm
घर के का कही,
देश के मालिक,
हींक भर खात बा,
भंडार सजावत बा,
चैन से सुतत बा,
बेंच देत बा,

बहुत खुब राजू भाई, राउर ई कविता त बहुत लोगन के सभ्य बना दिही, रउआ बिल्कुल सही कहत बानी, हमनी के सभ्य त हो गईल बानी जा पर कही ना कही सभ्यता जरूर पिछे छुट गईल बा, हमनी के सभ्य त हो गईल बानी जा पर कही ना कही इन्सानियत पिछे छुट गईल बा । बहुत ही सुन्दर रचना,
देशवासियन के काट के पेट,
काहे की हमनी के सभ्य हो गइल बानी
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on April 2, 2010 at 12:56pm
bahut badhiay raju bhai.......aisahi likhat rahi...raua rachna sab zordaar rahat baa....bahut badhiay jaa rahal bani raua aisehi likhat rahi...........
raur agila rachna me intezaar rahi............

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