सर झुका दूँ तेरे दर पर, ये मुझे करना नहीं
जान दे दूं हंस के लेकिन डर के है मरना नहीं
हाँथ जोडू पैर पकड़ूँ न तेरी मिन्नत करूँ
अपने ख़ातिर तेरे आगे डर के न तौबा करूँ
तू ने ही बनाया सबको जो ये चाहे सोच ले
तेरे ही लिखे पे फिर क्यों तेरा ही ना बस चले
तू अगर अगर है जन्मदाता सबका पालन हार है
जो दबे हैं उनपर दुःख का क्यों तोड़ता पहाड़ है ?
मैं ना जाऊँ मंदिरों में तेरी पूजा के लिए
ना जलाऊं आरती में घी के एक भी दिए
क्यूँ चढ़ाऊँ तेरे पग पर फूलों की मालाओं को
क्यों न खुद ही शांत कर लूँ अपनी मन की ज्वालाओं को
मैंने तूझको ना बुलाया जब भी मैं लाचार था
साथ उनके तू खड़ा था जिनमे व्यभिचार था
क्यों ना तूने हाँथ थामा सडको पर मैं जब सोया था
आंसू मेरे क्यों ना पोछे जब अकेले में मैं रोया था
जन्म देते मां को छिना बाप का पता नहीं
झुग्गियों में दिन बिताया रात की परवाह नहीं
आज कहते है सभी ये पैर तेरे मैं पडूँ
तूने ही सब दिया है मुझको सबसे मैं कहता फिरूं
पाया आज जो भी मैंने खुद हीं सब हासील किया
एक भी मदद को तेरे उसमे न शामिल किया
जो भी हूँ मैं जैसा भी हूँ वैसा ही रह जाऊँगा
पूजा तुझको कभी ना मैंने पूज भी ना पाऊंगा
"मौलिक व अप्रकाशित"
अमन सिन्हा
Comment
आदरणीय श्री अमन सिन्हा जी नमस्कार। भावों को कविता में ढालने का बेहतर प्रयास किया है आपने। बधाई स्वीकार करें।
आ. भाई अमन जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई।
@समर कबीर साहब,
आपके निरंतर टिप्पणी से मुझे ये उम्मिद जगती है कि मेरी रचनाएं कम से कम पढने योग्य तो है।
इसी तरह मेरी हिम्मत बढाते रहे।
जनाब अमन सिन्हा जी आदाब, सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
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