ज़िम्मेदारी के बोझ ने कभी सोने ना दिया
चोट जितनी भी लगी हो मगर रोने न दिया
घर से दूर रहा मैं जिनकी हंसी के ख़ातिर
अपना जितना भी बनाया पर अपना होने न दिया
सुबह की धुप न देखी, चाँदनी छु न सका
गुज़रा दिन भी अंधेरे मे, उजाला ना देख सका
तलब थी चैन से सोने की किसी की बाहों मे
जब भी घर मैं लौटा, पनाह पा ना सका
दो ठिकानो के बीच ही बसर मैं करता रहा
सभी खुश थे इसी से मैं सब्र करता रहा
जलाकर खून जो अपना रोटी कमाई थी
पेट सभी का भरा, मैं मगर आधा ही रहा
जुदाई का खुद से कभी शिकवा ना था
सभी अपने ही तो थे कोई पराया ना था
साथ जब जिस्म ने छोड़ा हिम्मत का
तब समझ मे ये आया कोई साथ खड़ा ना था
जब तलक बांटा मैंने सब हँसते ही रहे
अपने हिस्से के ख़ातिर संग बसते ही रहे
जरा सा हाथ जो पसारा मैंने परखने के लिए
जो कभी संग थे मेरे फिसलते ही रहे
जवानी खो दी मैंने जिन्हे सजाने में
बुढ़ापा थक नहीं पाया जिन्हे बनाने मे
साथ मेरा सभी को बोझ सा लगने लगा
हड्डियाँ मैंने गला दी जिन्हे बसाने मे
"मौलिक व अप्रकाशित"
अमन सिन्हा
Comment
@समर कबीर साहब,
हौसला बढाने के लिये असंख्य धन्यवाद।
जनाब अमन सिन्हा जी आदाब, सुंदर प्रस्तुति पर
बधाई स्वीकार करें ।
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