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रात भर - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२१/२१२१/१२२१/२१२

आँखों में नींद ला के जगाती है रात भर
पाकर अकेला याद जो आती है रात भर।१।
*
कैसे हो चैन देह को मन को सुकून तब
शोलों सी चाँदनी ये जलाती है रात भर।२।
*
होने लगी है जुल्फ जो उसकी सफेद यूँ
आँखों के आँसुओं से नहाती है रात भर।३।
*
बजती हवा से दूर जो मंदिर की घन्टियाँ
आवाज दे के लगता बुलाती है रात भर।४।
*
आता है याद माँ का वो दामन हमें बहुत
जब रात सर्दियों  की सताती है रात भर।५।
*
कहते हैं लोग ओस है लेकिन हमें पता
साकी गगन से जाम गिराती है रात भर।६।
*
लगता है केश खोल के विरहन खड़ी कोई
खुशबू हवा में घुल के जो आती है रात भर।७।

(२३-५-२१)
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment

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Comment by Samar kabeer on July 17, 2021 at 4:01pm

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

'बजती हवा से दूर जो मंदिर की घन्टियाँ'

इस मिसरे में 'बजती' को "बजतीं" कर लें ।

'साकी गगन से जाम गिराती है रात भर'

इस मिसरे में 'साक़ी' शब्द पुल्लिंग है, देखियेगा ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 12, 2021 at 7:42pm

आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन एवं धन्यवाद। है छूट गया है सादर...

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 12, 2021 at 7:40pm

आ. भाई मनोज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति, सराहना और टंकण त्रुटियों की ओर ध्यान दिलाने के लिए आभार ।

सुधार कर लिया है । देखिएगा।

Comment by Chetan Prakash on July 12, 2021 at 4:13pm

आदाब, भाई, मुसाफिर ! शैर न0. 6 रदीफ देखें, मान्यवर !

Comment by मनोज अहसास on July 12, 2021 at 4:11pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है मुसाफिर जी

कुछ टंकण त्रुटियां हैं  उनकी ओर ध्यान दीजिए

कृपया ध्यान दे...

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