(सम्पूर्ण वर्णमाला पर एक अनूठा प्रयास)
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अभी-अभी तो मिली सजन से,
आकर मन में बस ही गये।
इस बन्धन के शुचि धागों को,
ईश स्वयं ही बांध गये।
उमर सलोनी कुञ्जगली सी,
ऊर्मिल चाहत है छाई।
ऋजु मन निरखे आभा उनकी,
एकनिष्ठ हो हरषाई।
ऐसा अपनापन पाकर मन,
ओढ़ ओढ़नी झूम पड़ा,
और मेरे सपनों का राजा,
अंतरंग मालूम खड़ा।
अ: अनूठा अनुभव प्यारा,
कलरव सी ध्वनि होती है।
खनखन चूड़ी ज्यूँ मतवाली,
गहना हीरे-मोती है।
घन पानी से भरे हुए ज्यूँ,
चन्द्र-चकोरी व्याकुलता।
छटा निराली सावन जैसी,
जरा-जरा मृदु आकुलता।
झरझर झरना प्रेम का बरसे,
टसक उठी मीठी हिय में।
ठहर गया हो कालचक्र भी,
डर अंजाना सा जिय में।
ढम-ढम ढोल नगाड़े बाजे,
तनिक हँसी आ जाती है।
थपकी स्वीकृत मौन प्रेम की,
दमक नयन में लाती है।
धड़क रहा दिल स्नेहपात्र पा,
नव नूतन जग लगता है।
प्रणय निवेदन सर आँखों पर,
फाग प्रेम सा जगता है।
बन्द करी तस्वीर पिया की,
भरी तिजोरी मन की है।
महक उठी सूनी सी बगिया,
यही कथा पिय धन की है।
रहना है अब साथ सदा ही,
लगन लगी मन में भारी,
वल्लभ की मैं बनूं वल्लभा,
'शुचि' प्रभु की है आभारी।
सकल सृष्टि सुखदायक लगती,
षधा डगर है जीवन ही,
हम बन जायें अब मैं-तुम से,
क्षणिक नहीं आजीवन ही।
त्रास नहीं,सुख की बेला है ,
ज्ञात यही बस होता है।
वर्णमाल सी ऋचा है जीवन,
भाव भरा मन होता है।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
शुचिताजी,
सादर वन्दे. सुदीर्घ अन्तराल उपरान्त OBO पर आया, इस सुन्दर रचना पर विलम्ब से ही सही, बधाई, "षधा" मेरे लिए नया ज्ञानवर्धक शब्द है.
मुझे लगता है, "टसक उठी मीठी हिय में" के स्थान पर "टीस उठी मीठी हिय में" अधिक उपयुक्त होता. कृपया अन्यथा न लें, मात्र मेरा विचार प्रकट किया.
युं तो आपके नाम के साथ् आपके साथी का नाम जुड़ा होने से सामाजिक रुप से आप सम्पूर्ण ही जान पड्ती है कोई कमी भी नही फिर भी न जाने मेरा भ्रम ही हो आपकी रचना में आप अपने स्वभाव को छुपा नही पाई , कुछ न कुछ किसी कोने में कुछ दवा हुआ सा लगा मुझे -
इन्सान जो अपने जीवन में महसूस करता है उसकी छाया उसकी अभिव्यक्ति में उतर ही आती है अन्जाने -
रहना है अब साथ सदा ही,
लगन लगी मन में भारी,
वल्लभ की मैं बनूं वल्लभा,
'शुचि' प्रभु की है आभारी।
शृंगार रस का अनुभूत प्रयोग हुआ है इस रचना के म|ध्यम से शुचिता जी , एक लय है इस रचना में साथ् ही पढ़ते पढ़ते गुनगुनाने का मन करता है हाँ एक बात और एक छवि उभरती है अपने प्रियतम की जो इस रचना की सबसे खूब्सूरत पह्लू है शुचिता जी , बधाई स्वीकार किजिये
आदरणीय सौरभ पांडेय जी, उत्साहवर्ध एवं सुझाव हेतु आपका हृदय से आभार व्यक्त करती हूँ।
आ. शुचिता बहन, रचना अच्छी हुई है । हार्दिक बधाई । छंद विषयक आ. सौरभ जी की बात का संज्ञान अवश्य लें । सादर..
आदरणीया शुचिता जी, वर्णमाला को साधते हुए कथ्य की समरचना अपने आप में छंद परंंपरा का निर्वहन ही है. आपका यह एक श्लाघनीय प्रयास है.
हार्दिक बधाई !
यह अवश्य है कि मात्रिका के निर्वहन प्रति भी सचेत रहना था. यह भी अभ्यास से संयत हो जाएगा.
शुभातिशुभ
प्रोत्साहन हेतु हार्दिक आभार आदरणीय बासुदेव भैया।
शुचि बहन यह अनूठा प्रयोग करते हुए इस सुंदर छंद बद्ध सृजन की बहुत बहुत बधाई।
अतिशय आभार आशीष यादव जी।
बहुत सुंदर।
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