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कामरूपछन्द_वितालछन्द, माँ की रसोई

माँ की रसोई,श्रेष्ठ होई,है न इसका तोड़,
जो भी पकाया,खूब खाया,रोज लगती होड़।
हँसकर बनाती,वो खिलाती,प्रेम से खुश होय,
था स्वाद मीठा,जो पराँठा, माँ खिलाती पोय।

खुशबू निराली,साग वाली,फैलती चहुँ ओर,
मैं पास आती,बैठ जाती,भूख लगती जोर।
छोंकन चिरौंजी,आम लौंजी,माँ बनाती स्वाद,
चाहे दही हो,छाछ ही हो,कुछ न था बेस्वाद।

मैं रूठ जाती,वो मनाती,भोग छप्पन्न लाय,
सीरा कचौरी या पकौड़ी, सोंठ वाली चाय।
चावल पकाई,खीर लाई,तृप्त मन हो जाय,
मुझको खिलाकर,बाँह भरकर,माँ रहे मुस्काय।

चुल्हा जलाती,फूँक छाती,नीर झरते नैन,
लेकिन न थकती,काम करती,और पाती चैन।
स्वादिष्ट खाना,वो जमाना,याद आता आज,
उस सी रसोई,है न कोई,माँ तुम्ही सरताज।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by शुचिता अग्रवाल "शुचिसंदीप" on May 29, 2021 at 1:11pm

प्रोत्साहन हेतु हार्दिक आभार आजी तमाम जी।

Comment by Aazi Tamaam on May 28, 2021 at 10:47am

सुंदर छंद रचना है माँ पर

सादर प्रणाम सूचि जी

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