उस उजाड़ से गांव में बस कुछ टूटीफूटी झोपड़ियां ही मौजूद थीं जो वहाँ के लोगों के आर्थिक दशा और सरकार के विकास के नारे की तल्ख सच्चाई बयान कर रही थीं. उसको थोड़ा अजीब लगा, उसने अपने स्टाफ की बात को गंभीरता से नहीं लिया था. दरअसल जब भी इस गांव के लोगों से वसूली की बात होती, स्टाफ मना कर देता कि वहाँ जाने से कोई फायदा नहीं होगा. "सर, वहाँ लोगों के पास अभी खाने को नहीं है, बैंक की किश्त कैसे चुकाएंगे", अक्सर उसे यही बात सुनने को मिलती थीं.
लेकिन उसे लगा कि शायद दूर होने और वहाँ पैदल जाने के चलते लोग जाना नहीं चाहते. "ठीक है, कल मैं वहाँ जाऊँगा, जिसने भी उस गांव को देखा है, मेरे साथ चलना", उसकी इस बात पर स्टाफ ने सर हिला दिया.
पहाड़ी पार करके लगभग तीन किमी पैदल चलना पड़ा था, तब इस गांव में दोनों पहुंचे थे. उसकी खोजती निगाह को पढ़कर स्टाफ ने बताया "सर, वह है किशना का घर". झोपड़े के आगे एक बकरी बंधी थी और दो छोटे छोटे अधनंगे बच्चे खेल रहे थे. उनकी आहट सुनकर एक महिला बाहर निकली, उसकी गोद में भी एक बच्चा था. वह अभी सोच ही रहा था कि इस बेहद कम उम्र की लड़की के तीन तीन बच्चे हैं तभी स्टाफ ने थोड़ा डांटते हुए कहा "किशना कहाँ है, बैंक का पैसा नहीं भर रहा है. देखो आज बड़े साहब को भी आना पड़ गया".
उस महिला ने उसकी तरफ देखा और बेहद दर्द भरे शब्दों में बोली "साहब, आज तीन दिन हो गए, किशना घर नहीं लौटा है. घर में खाने के लिए भी कुछ नहीं बचा है". उसकी समझ को जैसे लकवा मार गया, कहाँ पैसे के लिए कहने आया था और कहाँ ये हालत. उसने तुरंत स्टाफ को इशारा किया कि कुछ कहने की जरुरत नहीं है और हाथ जोड़कर वापस चलने को कहा. वापस मुड़ते समय उसने जेब से कुछ 100 के नोट चुपके से वहीं गिरा दिए, वह खुद उन रुपयों को सीधे देने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.
मौलिक एवम अप्रकाशित
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इस सारगर्भित टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी
इस सारगर्भित टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ तेज वीर सिंह जी
आ. भाई विनय कुमार जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार जी। एक कड़वी सच्चाई का बेहतरीन तरीके से वर्णन करती शानदार लघुकथा।
भाई, विनय कुमार लघुकथा कथा तत्व में अद्भुत कसावट के होते कथ्य के उल्लेखनीय निर्वहन के कारण से ही 'लघुकथाकार कही जाती ही है, कृपया इस कथन के संदर्भ अपनी प्रस्तुति पर मनन करें! इति !
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