( 2212 122 2212 122)
कितनी सियाह रातों में हम बहा चुके हैं
ये अश्क फिर भी देखो आंँखों में आ चुके हैं
गर आके देख लो तो गड्ढे भी न मिलेंगे
हाँ,लोग काग़ज़ों पर नहरें बना चुके हैं
अब खिलखिला रहे हैं सब लोग महफ़िलों में
मतलब है साफ सारे मातम मना चुके हैं
वो ख़्वाब सुब्ह का था इस बार झूठ निकला
ता'बीर के लिए हम नींदें उड़ा चुके हैं
अब पाप का यहाँ पर नाम-ओ-निशांँ नहीं है
सब लोग शह्र के अब गंगा नहा चुके हैं
मजबूरी है, ग़रज़ है,मायूस हैं तभी तो
बहरों को हाल-ए-दिल हम अपना सुना चुके हैं
हर साल गर्मियों में वो खोलेंंगे पियाऊ
जो,प्यास सर्दियों में अपनी बुझा चुके हैं
* मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीया डिंपल शर्मा जी
आदाब
ग़ज़ल पर उपस्थिति एवं सराहना के लिए हार्दिक आभार.
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' साहिब
आदाब
ग़ज़ल पर उपस्थिति एवं सराहना के लिए हृदय की गहराईयों से आभार. उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में भी आपका स्नेह और मार्गदर्शन मिलता रहेगा. सादर
जनाब सालिक गणवीर जी, आदाब।
अच्छी ग़ज़ल कही है आपने, बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय सालिक गणवीर जी नमस्ते इस खुबसूरत ग़ज़ल पर ढ़ेर सारी बधाइयां आपको , आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' जी नमस्ते,आपने ग़ज़ल पर जो जानकारियां दि हैं वो बहुत कुछ मददगार होगी मेरे लिए भी , पढ़कर अच्छा लगा , अपनी ग़ज़लों पर भी आपकी उपस्थिति और आपके मार्गदर्शन के लिए गुज़ारिश करुंगी, कृप्या वक्त निकाल मेरी ग़ज़लों पर भी अपनी इनायत बरपें , आभार।
जो बहुत से लोगों को पता *नहीं* है,
आदरणीय सालिक गणवीर साहिब, आप को इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल पर तह-ए-दिल से बधाई। उस्ताद-ए-मुहतरम समर कबीर साहिब ने हरी झण्डी दिखला दी है, इसलिए मेरा कुछ भी कहना बद-तमीज़ी है। लेकिन फिर भी आपको बताना चाहता हूँ:
आदरणीय, कुछ टंकण त्रुटियाँ इंगित कर रहा हूँ:
1 फिर, आँखों
2 आदरणीय, उर्दू शाइरी में 'ना' को 2 के वज़्न पर कभी नहीं लिया जाता, इसे 1 के वज़्न पे लेने की आदत डालिये। 'ना' को 'न' लिखना इसलिए ज़ियादा मुनासिब है ताकि लिखते समय याद रहता है कि इसे 1 वज़्न पे लेना है। जैसे पिछली गुफ़्तुगू में आपने ज़िक्र किया था, मैं 'सही' को 'सहीह' इसलिए लिखता हूँ ताकि उसका वज़्न याद रहे।
3 साफ़
'सब' और 'अब' को एक दूसरे के स्थान पे कह कर देखिये।
4 आदरणीय, 'सुबह' को अगर 'सुब्ह' लिखेंगे तो आपको वज़्न याद रहेगा, आपने दुरुस्त वज़्न इस्तेमाल किया है।
5. आपको बिंदु (अनुस्वार) और चन्द्रबिन्दु (अनुनासिक ) के बारे में एक जानकारी देना चाहता हूँ:
बिंदु मतलब आधा 'न' यानी 1 का वज़्न: खंडर (खन 2 डर 2)
चन्द्रबिन्दु मतलब नाक में से 'न' की आवाज़, यानी 0 वज़्न: खँडर (खँ 1 डर 2)
इस हिसाब से आख़िर में जो 'आँ' की आवाज़ है वो हमेशा चन्द्रबिन्दु से ही लिखी जाती है: निशाँ
और लिखने का सहीह तरीक़ा: नाम-ओ-निशाँ
7. आदरणीय, मेरे हिसाब से सही लफ़्ज़ 'पियाऊ' यानी 122 है, आप आसानी से अपने शे'र में तरमीम कर लेंगे।
/अब पाप का यहाँ पर नामो-निशां नहीं है
सब लोग शहर के अब गंगा नहा चुके हैं/
इज़ाफ़त वाले लफ़्ज़ों को लिखने का सहीह तरीक़ा है: नाम-ओ-निशाँ
इस शे'र पर मेरी विशेष दाद स्वीकार करें आदरणीय, ख़ास तौर पे 'शह्र' के सहीह वज़्न पे, जो बहुत से लोगों को पता है, और जिन्हें बताया जाता है, वो स्वीकार नहीं करना चाहते।
आदरणीय समर कबीर साहब
आदाब
ग़ज़ल पर उपस्थिति एवं सराहना के लिए हृदय की गहराईयों से आभार. उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में भी आपका स्नेह और मार्गदर्शन मिलता रहेगा. सादर
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
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