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सिर्फ़ सन्नाटा है ता-हद्द-ए-नज़र अब मेरी
ख़्वाब की दुनिया गई यार बिखर अब मेरी
झूठ निकला मेरा दावा कि तेरे बिन न रहूँ
हिज्र के साथ है क्या ख़ूब गुज़र अब मेरी
नाख़ुदा है ही नहीं जब तो मुझे क्या मालूम
मौज ले जाएगी कब नाव किधर अब मेरी
कैसा माज़ी था मुहब्बत ही मुहब्बत से भरा
देखने की नहीं हिम्मत है उधर अब मेरी
फ़र्क सेहत पे न कुछ उसके है पड़ने वाला
जाती है जाये भले जान अगर अब मेरी
ज़िंदगी भर तो ग़मों से ही पड़ा पाला ख़ुदा
चन्द ख़ुशियाँ तो हों क़िस्मत में मगर अब मेरी
किस तरह ज़ीस्त की ये रेल चलेगी या रब
जब है पटरी से गई रेल उतर अब मेरी
कितने सालों से पराई हैं ख़ुशी की सुबहें
क्या ख़ुदा होगी कोई एक सहर अब मेरी
कर 'तुरंत' एक इशारा-ए-करम आज मुझे
या ख़ुदा झोलियाँ उम्मीद से भर अब मेरी
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' साहेब ,आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार एवं नमन |
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' साहिब, इस बेहतरीन ग़ज़ल पर दाद और मुबारकबाद क़ुबूल करें।
भाई TEJ VEER SINGH जी , आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार |
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी , आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार |
आदरणीय Samar kabeer साहेब ,आदाब , आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई गिरधारी सिंह जी, सादर अभिवादन ।अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
भाई TEJ VEER SINGH जी , आपकी हौसला आफ़जाई के लिए दिल से शुक्रिया |
हार्दिक बधाई आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी जी। बेहतरीन गज़ल।
कितने सालों से पराई हैं ख़ुशी की सुबहें
क्या ख़ुदा होगी कोई एक सहर अब मेरी
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