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जुबान इतनी तेरी दोस्त आतिशीं मत रख
कि जिसमें मार* पले ऐसी आस्तीं मत रख (*सॉंप )
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मैं तज़र्बें की बिना पर ये बात कहता हूँ
बहुत दिनों के लिए कोई दिलनशीं मत रख
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सजाने ज़ुल्फ़ को कुछ देर यासमीं काफ़ी
तवील वक़्त की ख़ातिर तू यासमीं*मत रख
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फिसलते दस्त हैं जब हमकिनार करता हूँ
क़बा पहन के नई यार रेशमीं मत रख
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हुआ अदू है तेरे हुस्न का ज़माना ये
मकाँ से दूर क़दम हाय नाज़नीं मत रख
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"हमारी एकता बर्बाद कर के रख देगा "
तुम्हारे दिल में अदू ख़्वाब ये हसीँ मत रख
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क़मर न अब्र के सीने में मुँह छुपा ले कहीं
तू उसके सामने रुख़ अपना महज़बीं मत रख
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मुहब्बतों के भले सात आसमाँ रख ले
मगर तू नफ़रतों की इंच भर जमीं मत रख
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झुके तो सिर्फ़ झुके रब के आस्ताँ पे 'तुरंत '
कहीं तू और झुका कर तेरी जबीं मत रख
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Samar kabeer साहेब , आदाब ,
सुन्दर एवं प्रेरक शब्दों के लिये दिल से आभार
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'मैं तज़र्बें की बिना पर ये बात कहता हूँ'
इस मिसरे में 'तज़र्बें' को
"तज्रिबे" कर लें ।
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