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एक ग़ज़ल

सुन  रहे  हैं  कि  वो  इक ऐसी दवाई देगा
जिससे  अंधे  को भी रातों में दिखाई देगा

प्यार  से  उसने  बुलाया है मुझे मक़्तल में
जानता हूँ   मैं जो  दावत   में  क़साई देगा

ऐसे चिल्लाओ कि आवाज़ वहाँ तक जाए
एक  दिन  तो  सभी  बहरों को सुनाई देगा

पास  रहता  हूँ  तो मुंह फेर के चल देता है
दूर  जाऊँगा  तो   आने   की   दुहाई  देगा

क़ैदख़ाने   में  उसी  ने  ही रखा सालों तक
जिसने   उम्मीद  जताई   थी   रिहाई  देगा

घुप   अंधेरे  से  किसी रोज़ निकल आयेंगे
हाथ  को  हाथ  हमें  जब   भी सुझाई देगा

स्याह  बालों  को  ये  हर  रोज़ सफ़ेदी देगा
वक़्त  गुज़रेगा  तो  हर  चेहरे  पे झाई देगा

* मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on April 2, 2020 at 7:13pm

//दे गया सिर्फ़ ये बालों को सफ़ेदी मेरे
वक़्त ने मुझको नवाज़ा है तुम्हें भी देगा//

तक़ाबुल-ए-रदीफ़ तो निकल गया,क़ाफ़िये और भाव पर विचार करें ।

Comment by सालिक गणवीर on April 2, 2020 at 6:40pm
आदरणीय,
पिछले कमेंट आपका नाम ग़लत टाइप हो गया है. माफी चाहूँगा.
Comment by सालिक गणवीर on April 2, 2020 at 6:28pm
आदरणीय समर करीब साहब
तक़ाबुले-रदीफ़ दोष को दुरुस्त करने की कोशिश की है. आपकी नज़रे-इनायत की दरकार है.
दे गया सिर्फ़ ये बालों को सफ़ेदी मेरे
वक़्त ने मुझको नवाज़ा है तुम्हें भी देगा

सालिक गणवीर
Comment by सालिक गणवीर on April 2, 2020 at 4:38pm
समीर साहब
बहुत शुक्रिया जनाब.आपसे ऐसे ही मार्ग दर्शन की उम्मीद थी.मिसरे में क्या की जगह ''जो'' करना ही उचित होगा.मकता पुनः लिखने की कोशिश करता हूँ,या फिर इसे हटा ही देता हूँ.
Comment by Samar kabeer on April 2, 2020 at 3:40pm

जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

'जानता हूँ मैं क्या दावत में क़साई देगा'

इस मिसरे में 'क्या' शब्द में मात्रा पतन उचित नहीं,'क्या' की जगह "जो" कर सकते हैं ।

'स्याह बालों को ये हर रोज़ सफ़ेदी देगा
वक़्त गुज़रेगा तो हर चेहरे पे झाई देगा'

इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं,तक़ाबुल-ए-रदीफ़ भी है,देखियेगा ।

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