(1222 1222 1222 1222 )
तड़प उनकी भी चाहत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
लगी आतिश मुहब्बत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
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मिलन के बिन तड़पते हैं वो क्या वैसे कि जैसे हम
जो बेचैनी है सोहबत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
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हुआ है अनमना सा दिल हुई कुछ शाम भी बोझिल
तम्मना आज ख़िलवत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
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बग़ैर इक दूसरे के जी सकें और मर न पाएँगे
ज़रूरत ऐसी निस्बत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
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मुहब्बत के लिए यलग़ार करना हो ज़माने पर
तो हिम्मत है बग़ावत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
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जुनून-ओ-जोश से लबरेज़ है क्या क़ल्ब उनका भी
लगन दिल में जो मेहनत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
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निभाई हैं सभी रस्में हमेशा प्यार की हमने
मगर इस्मत रिवायत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
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दिया है अब उन्हें दर्जा ख़ुदा का इश्क़ में हमने
रज़ा उनकी ज़ियारत की इधर जैसी उधर भी क्या ?
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मिसाल-ए-इश्क़ हो जाये 'तुरंत ' अपनी मुहब्बत भी
तमन्ना ऐसी उल्फ़त की इधर जैसी उधर भी क्या ?
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Samar kabeer साहेब आदाब , क्या रदीफ़ ="इधर जो है उधर भी क्या ? "अथवा "इधर जैसी उधर है क्या ?"उचित रहेगा
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन रदीफ़ ने सारा खेल बिगड़ दिया,इस पर विचार करें,और रदीफ़ बदलने का प्रयास करें ।
आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' साहेब , आदाब , आपकी हौसला आफ़जाई और त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाने के बहुत बहुत आभार | शाइर नया हो या सीनियर ग़लतियाँ सभी को नज़र आ सकती है | "है " के प्रयोग के मुआमले में अक़्सर मैं कंफ्यूज रहता हूँ कि क्या ये ज़रूरी है भी या नहीं | रदीफ़ पूरे मिसरे को स्पष्ट करने के लिए यही आवश्यक लगा मुझे ,कई बार तकनीक से ज़ियादा भाव महत्वपूर्ण होते हैं | सी है लगाने से मेरे ख़याल में उतना स्पष्ट नहीं हो रहा जितना जैसी लगाने में है | फिर भी कोशिश करूंगा ,पूरी ग़ज़ल एक बार संशोधित करने की |
जनाब अमीरुद्दीन खा़न "अमीर साहेब , आदाब, आपकी हौसला आफ़जाई के लिए शुक्रगुज़ार हूँ , आपकी इस्लाह सर आँखों पर | उर्दू लिखना पढ़ना आता नहीं है इसलिए उर्दू के शब्दों के सहीह रूप क्या है इसका अंदाज़ा हो नहीं पाता है | इसलिए निभाई और निबाही का झंझट रहता है , बगैर इक में तो वस्ल से हालाँकि तक्तीअ सहीह लग रही है|
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' साहिब, आदाब। आपने बड़ी मुश्किल रदीफ़ निभाई इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल में। दाद और मुबारक़बाद क़ुबूल फरमाएँ।
हुज़ूर, मतले को पढ़ कर और कई अश'आर के मिस्रा-ए-सानी पढ़ कर मुझे 'है' की कमी महसूस हुई। कुछ सोचने के बाद एक रास्ता सूझा। अगर आपको उचित लगे तो रदीफ़ यूँ कर सकते हैं:
1222 1222
इधर सी है उधर भी क्या
रदीफ़ बदलने से आपको कुछ अश'आर में फेर-बदल करना पड़ेगा, जिनमें सानी में पहले से ही "है" मौजूद है, लेकिन बाक़ी अश'आर ज़ियादा स्पष्ट और प्रभावकारी हो जाएँगे, मुझे ऐसा लगता है।
/मिलन के बिन तड़पते हैं वो क्या वैसे कि जैसे हम/
इस मिसरे में 'कि' के स्थान पर 'ही' ज़ियादा उचित रहेगा
/बग़ैर इक दूसरे के जी सकें और मर न पाएँगे/
बग़ैर इक दूसरे के जी सकें हम और न मर पाएँ
आदरणीय अमीरुद्दीन ख़ान 'अमीर' साहिब से भी ग़ज़ल को बड़े ग़ौर से पढ़ कर टंकण त्रुटियों को इंगित किया है, जैसे दर्जा, सोहबत, और निभाई हैं। लेकिन "बग़ैर इक दूसरे के..." तो मुझे सही वज़न में प्रतीत हो रहा है अलिफ़-वस्ल की वज्ह से।
आदरणीय, मैं एक नौ-मश्क़ शाइर ही हूँ, और ये मेरी राय मात्र है, बाक़ी सौ फ़ीसदी मो'तबर इस्लाह तो उस्ताद-ए-मुहतरम समर कबीर साहिब की ही होगी। अगर आप को मेरे सुझाव लाभकारी लगें तो बेहद ख़ुशी होगी, अन्यथा इन्हें नज़र-अंदाज़ कर दीजियेगा। सादर
जनाब 'तुरन्त ' बीकानेरी साहब आदाब। बहुत ही ख़ूबसूरत मज़्मून और तख़य्युलात बहुत ख़ूबसूरती से पेश किए गये हैं। कुछेक मामूली टाइपिंग चूक हो गयी हैं देखियेगा. जो बेचैनी है 'शोहबत' को सोहबत कर लें, तो 'निभाई' 'है' सभी रस्में को, निबाही हैं, दिया है अब उन्हें 'दर्ज़ा' को दर् जा मुनासिब होगा। मिसरा - बग़ैर इक दूसरे के, की तक्तीअ पर नज़रे सानी कर लें। ग़ज़ल के सभी अशआ़र बेहतरीन हैं। तहे दिल से मुबारकबाद कु़बूल फरमाइये।
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