(1222 1222 1222 1222 )
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किसी भी रहरवाँ को जुस्तजू होती है मंज़िल की
सफ़ीनों को मुसल्सल खोज रहती है जूँ साहिल की
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न करना तोड़ने की कोशिश-ए-नाकाम इस दिल को
बड़ी मज़बूत दीवारें सनम हैं शीशा-ए-दिल की
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किया तीर-ए-नज़र से वस्ल की शब में हमें बिस्मिल
नहीं मालूम क्या है आरज़ू इस बार क़ातिल की
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सियाही पोतने से रोशनी का रंग नामुमकिन
बनाएगी तुम्हें बातिल ही संगत रोज़ बातिल* की
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क़ुबूलें वो ख़ुशी से या करे मंज़ूर बेमन से
ज़रूरत हर बशर को है मुहब्बत की सलासिल की
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हमारी ज़िंदगी में तुम क़दम रक्खो कि मत रक्खो
तुम्हारी याद से रोशन रहेगी शम'अ इस दिल की
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किसी के काम आ जाये नहीं उनमें है वो कुव्वत
भला क्या ज़िंदगी होती है काहिल और जाहिल की
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कहीं कोई न हो फ़ित्ना वतन में अम्न हो क़ायम
है ज़िम्मेदारी ये हर एक फ़ाज़िल और आदिल की
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'तुरंत ' आसाँ रहा कब है सफ़र अपना ज़माने में
जगह जो है सुख़न में वो बहुत मेहनत से हासिल की
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गिरधारी सिंह 'तुरंत ' बीकानेरी |
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय Samar kabeer साहेब , आपके आशीर्वचनों के आगे नतमस्तक हूँ | सादर आभार |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
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