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1-  शत्रु के सत्रह हार

काम1, क्रोध2, मद3, लोभ4, मोह5,

मत्‍सर6, रिपु  के संचार।

द्वेष7, असत्‍य8, असंयम9, गल्‍प10,

प्रपंच11, करे संहार12

स्‍तेय13, स्‍वार्थ14, उत्‍कोच15, प्रवंचना16,

विषधर अहंकार17

जो धारें ये अवगुण सारे 

सत्रहों हैं शत्रु हार।

 

2- बसंत

बसंत

बस अंत

सभी दर्द, व्‍यथा, घृणा,

द्वेष, दम्‍भ, स्‍वार्थ और

भ्रष्‍टाचार का।

बस अंत, बस अंत

तभी सार्थक

बसंत

 

3- जीवन

‘जी वन’ चाहे,

‘जीव न’ चाहे

‘जी’ व ‘न’ की

दुविधा में

’जीवन’

बीता जाये। 

*मौलिक एवं अप्रकाशित*

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Comment by विजय मिश्र on September 26, 2014 at 5:57pm
"जी’ व ‘न’ की

दुविधा में

’जीवन’

बीता जाये। " - अतीव सुन्दर ! सार्थक क्षणिकाएँ |आभार आदरणीय गोपालजी |
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 25, 2014 at 10:37pm

बहुत सुंदर. badhai

Comment by harivallabh sharma on September 24, 2014 at 1:49pm

सुंदर क्षणिकाएं...प्रेरक..और सारगर्भित सत्य..बधाई आदरणीय.

Comment by Shyam Narain Verma on September 24, 2014 at 1:22pm

" अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई ................. "

Comment by savitamishra on September 24, 2014 at 11:36am

बहुत सुन्दर ....आभार आपकी बधाई के लिय , आज ही हमने देखा खुद को सक्रीय सदस्य के रूप में चुना गया

कृपया ध्यान दे...

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