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ये रंजिश का दौर नया है ,
हाँ, साज़िश का दौर नया है ।
कितने बेबस चहरे देखो ,
फिर यूरिश का दौर नया है ।
हम क्या खायें, क्या पहनें अब ,
बस, काविश का दौर नया है ।
भाई-भाई का दुश्मन है ,
ये सोज़िश का दौर नया है ।
शक हर इक पर है अब यारो ,
हाँ, पुरसिश का दौर नया है ।
धन-दौलत के दीवाने सब ,
पैमाइश का दौर नया है ।
सूखी-सूखी नदियाँ हैं सब ,
अब बारिश का दौर नया है ।
शब्दार्थ:--
यूरिश-हमला
सोज़िश-जलन
काविश-तलाश
परसिश-पूछताछ
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

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Comment by Mohammed Arif on July 20, 2017 at 7:03pm
आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब ग़ज़ल पर अपनी अमूल्य प्रतिक्रिया देकर मेरे लेखन को सार्थक कर दिया । बहुत-बहुत शुक्रिया ।
Comment by Samar kabeer on July 20, 2017 at 6:25pm
जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by Mohammed Arif on July 20, 2017 at 2:06pm
हृदय तल से आभार आदरणीय रवि शुक्ला जी । लेखन सार्थक हो गया ।
Comment by Ravi Shukla on July 20, 2017 at 9:30am

आदरणीय मोहम्‍मद आरिफ साहब अच्‍छी गजल कही आपने मुबारक बाद पेश करते है । आखिरी शेर खास तौर पर पंसद आया ।

सादर ।

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