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ग़ज़ल - दो पहर की धूप भी अच्छी लगी ( गिरिराज भंडारी )

2122    2122    212

दो पहर की धूप भी अच्छी लगी

साथ उनके हर कमी अच्छी लगी

 

यादों की थीं खुश्बुयें फैलीं वहाँ

तुम न थे फिर भी गली अच्छी लगी

 

कब कहा मैनें कि मैं था शादमाँ

कुल मिला कर ज़िन्दगी अच्छी लगी

 

सब में रहता है ख़ुदा ये मान कर

जब भी की तो बन्दगी अच्छी लगी

हाँ, ज़बाँ से भी कहा था कुछ मगर  

जो नज़र ने थी कही, अच्छी लगी

 

दोस्ती तो थी हमारी नाम की  

पर तुम्हारी दुश्मनी, अच्छी लगी

 

चाहतें पूरी हुईं तो मर गईं

जो अधूरी थी बची, अच्छी लगी

********************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by Ram Awadh VIshwakarma on September 19, 2017 at 4:11pm
शानदार ग़ज़ल के लिये बधाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 18, 2017 at 6:12pm

आ. सलीम भाई , उत्साह वर्धन के लिये आभार । अरकान सुधार देता हूँ , आभार आपका ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 18, 2017 at 6:11pm

आ. नीलेश भाई , आपका हार्दिक आभार । आपने सही कहा .. मिसरे मे लिंग दोष आ गया है , सुधार देता हूँ , आभार आपका ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 18, 2017 at 6:10pm

आदरनीय अफरोज़ भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया । अरकान ग़लत लिख गया है ... सुधार देता हूँ । आभार आपका

Comment by SALIM RAZA REWA on September 18, 2017 at 5:25pm
आ. गिरिराज जी,
ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई हर शेर लाजवाब..
अफरोज भाई सही कह रहे हैं, शायद आपने भूल बस फायलुन को फायलातुन कर दिया है,
देख लीजिएगा,
Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 18, 2017 at 5:25pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है आ. गिरिराज जी,
बधाई ..
.
जब किया तो बन्दगी अच्छी लगी.... (बंदगी स्त्र्लिंगी शब्द है .. किया खलल डाल रहा है )
जब  भी की तो बन्दगी अच्छी लगी 

सादर 

Comment by Afroz 'sahr' on September 18, 2017 at 4:51pm
आदरणीय गिरीराज जी बहुत सुंदर ग़ज़ल के लिए बहुत बधाई आपको! आपने अर्कान लिखे हैं!2122/2122/2122 जोकी भ्रम पैदा कर रहे हैं !इसे सही करलें !सादर,,,,

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