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हिन्दी ग़ज़ल...जब सूर्य चले अस्ताचल को

22 22 22 22
जब सूर्य चले अस्ताचल को
गहराय तिमिर घेरे तल को

इक दीप जलाओ अंतस में
जगमग कर दो भूमण्डल को

आवाज बनो तुम गूंगों की
तूफान बना दो हलचल को

जब चलना है, तो साथ चलें
पग से नापें नभ जल थल को

दुःख दुनिया का पी लेंगें 'ब्रज'
रक्खो तैयार हलाहल को
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment

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Comment by Hemant kumar on May 10, 2017 at 7:43am
आदरणीय बृजेश जी उम्दा ग़ज़ल हुई है बधाई स्वीकार करें सादर
Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 9, 2017 at 10:47pm
अच्छी ग़ज़ल हुई है भाई वृजेस जी इस रचना के लिए ढेर सारी बधाई स्वीकार करे सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 9, 2017 at 10:14pm
उत्साहवर्धन के लिये आपका हार्दिक अभिनन्दन एवं आभार मित्र उदय प्रताप सिंह जी..
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 9, 2017 at 10:12pm
आदरणीय डा.साहब रचना पटल पे आपकी उपस्थिति और सार्थक समीक्षा के लिए ह्रदय से आभार..आदरणीय इस बहर में 21 12 को 222 पढ़ा जा सकता है जहाँ तक मेरी जानकारी है..सूर्य चले 21 12 को 222 माना है बाकी सभी पंक्तियों में..आगे गुणीजन और बात साफ करें तो बेहतर होगा मेरे लिये भी..अस्तांचल सही शब्द नहीं इस और ध्यान आकर्षित करने के लिये हार्दिक आभार..सुधार करता हूँ..सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 9, 2017 at 10:02pm
बहुत बहुत आभार आदरणीय नीलेश जी..
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 9, 2017 at 8:02pm

आ० ब्रज जी  

जब   सूर्य   चले     अस्तांचल को

 २    २ १    १२       २ २ २ २ 

गहराय    तिमिर घेरे तल को

२ २ १      १ २   २२  २    २ ------आगे आप स्वयम देखें . शब्द अस्ताचल है अस्तांचल नहीं .   सादर . 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 9, 2017 at 8:01pm

वाह 

आ. बृजेश जी ...
बहुत सुंदर ग़ज़ल कही आपने 
बधाई 

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