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2122 1212 22/112

इस तरह हमने दिन गुज़ारा है
बारहा खुद को ही पुकारा है

संग से क्या डरेगा वो जिसने
कू ए क़ातिल में दिन ग़ुज़ारा है

ज़र्द पत्ता हूँ मैं खिजाँ ने मुझे
पेड़ की शाख से उतारा है

कम है सोचो तो काइनात भी और
जीना हो तो जहान सारा है

जज़्ब कर दर्द मुस्कुराहट में
हमने चेहरा बहुत सँवारा है

हमपे कुछ इख़्तियार तो रखते
जो हमारा है वो तुम्हारा है

बाँट सकते हो तुम भी अपने ग़म
“जो तुम्हारा है वो हमारा है”

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by शिज्जु "शकूर" on February 1, 2017 at 10:32am

बहुत बहुत शुक्रिया आ. गुरप्रीत जी, 

बारहा - बार-बार

संग -  पत्थर

कू ए कातिल - कातिल की गली

मुआफी चाहता हूँ, आमतौर पर मैं शब्दों के अर्थ भी लिख दिया करता हूँ इस बार भूल गया

Comment by Gurpreet Singh jammu on February 1, 2017 at 8:54am
वह वाह जनाब शिज्जू शकूर जी..बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने...एक से बढ़कर एक अशआर हुए हैं...
ज़र्द पत्ता हूँ मैं खिजाँ ने मुझे
पेड़ की शाख से उतारा है

कम है सोचो तो काइनात भी और
जीना हो तो जहान सारा है

जज़्ब कर दर्द मुस्कुराहट में
हमने चेहरा बहुत सँवारा है

हमपे कुछ इख़्तियार तो रखते
जो हमारा है वो तुम्हारा है
इन अशआर ने दिल पर खास असर डाला...लाजवाब हैं...
कूछ शब्द जैसे..."बारहा", "संग", और "कू ए क़ातिल" क अर्थ मालूम न होने की वजह से समझने में कुछ दिक्कत हुई....इनके अर्थ बताने की भी मेहरबानी करें.....शुक्रिया

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