ओजोन की परत में अब छेद खल रहा है
धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है
उन्नति के नाम पर हैं ये कारनामे अपने
तालाब पाट घर के हम बुन रहे हैं सपने
खेतों में चौगनी है माना फसल बढ़ी पर
सब्जी अनाज फल में बिष खा रहे हैं अपने
नूतन प्रयोग अपना खुद हमको छल रहा है
धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है
ये गंदगी का ढेर जो चारो तरफ लगाया
इस गंदगी के ढेर को खुद हमने है बढ़ाया
हम खूब समझते है परिणाम जानते है
पर पोलिथीन में ही घर का सामान आया
खुद अपने हाथों मौत का षड्यंत्र चल रहा है
धरती झुलस रहे है जग सारा जल रहा है
बागों में तितलिया अब मिलती नहीं हैं ढूंढें
भंवरों की भ्रामरी भी अब न चमन में गूंजे
आता है अब भी यूं तो मौसम वो आम वाला
पर जाने हैं कहाँ गुम वो कोयलों की कूकें
प्यासी मही को बादल अब रोज छल रहा है
धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है
अब चील , गिद्ध मैना तीतर नजर न आते
फैला के पंख अपने न मोर नाच पाते
अब शेर चीते भालो शो पीस हो गए हैं
चमड़ी में भरा भूंसा महलो को हैं सजाते
हर जीव में जगत के आक्रोश पल रहा है
धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय आशुतोष भाई , क्या बात है .. पर्यावरण प्रदूषण पर बढिया गीत रचा है आपने , हार्दिक बधाइयाँ । आ. मिथिलेश भाई जी कोशिशों से गेयता और अच्छी हो गयी है , बधाइयाँ ।
आदरणीय महेंद्र जी ..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर धन्यवाद के साथ
आदरणीय गोपाल सर रचना पर आपकी उत्साहवर्धन और मार्गदर्शन करती प्रतिक्रिया के ह्रदय से आभारी हूँ सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय समर सर ..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर प्रणाम के साथ
आदरणीय मिथिलेश जी नव बर्ष पर आपकी शानदार रचना को पढना उस गीत को पढ़कर जिन्दगी में पहली बार गीत लिखने का खुद प्रयास करना ..प्रतिक्रिया न मिलने से निराश होना यह सोच कर की कही भयंकर भूल तो नहीं हुयी ..फिर आदरणीय समर सर आदरणीय गोपाल सर भाई महेंद्र जी की प्रतिक्रियाओं से मिला धाडस और अंत में आपकी बिस्तृत प्रतिक्रिया से गीत को समझने में बहत मदद मिली /मात्राओं को गिनने के सम्बन्ध में मेरी भ्रान्ति को नयी दिशा मिली./ नव बर्ष पर मेरे लिए ये किसी तुह्फे से कम नहीं है / आदरणीय मैंने ऐसी कुछ और रचनाये लिखी हैं उनकी बिधा के सम्बन्ध में प्रस्तुति के समय आपसे मार्गदर्शन मिलेगा /आपके मार्गदर्शन और प्रतिक्रिया पर सादर धन्यवाद के साथ सादर
आदरणीय आशुतोष जी, आपका यह गीत एक बह्र जिसका वज्न 221-2122-- 221-2122 है, पर आधारित लग रहा है. गीत का मुखड़ा और पहला अंतरा तो इस पर फिट बैठ रहा है बाकी अंतरों में भी इसी बह्र की झलक है. इस बह्र पर गीत को कसा जाए तो गीत कुछ यूं लगेगा-
ओजोन की परत में अब छेद खल रहा है
धरती झुलस रही है संसार जल रहा है
उन्नति के नाम पर हैं ये कारनामे अपने
तालाब पाट घर के हम बुन रहे हैं सपने
खेतों में चौगनी है माना फसल बढ़ी पर
सब्जी अनाज फल में बिष खा रहे हैं अपने
नूतन प्रयोग अपना खुद आज छल रहा है
धरती झुलस रही है संसार जल रहा है
ये ढेर गंदगी का चारो तरफ लगाया
इस ढेर को भी यारो खुद हमने है बढ़ाया
हम खूब हैं समझते, परिणाम जानते है
पर पोलिथीन में ही, सामान घर का आया
फिर मौत का स्वयं की षड्यंत्र चल रहा है
धरती झुलस रहे है संसार जल रहा है
बागों में तितलिया अब मिलती नहीं हैं ढूंढें
भंवरों की भ्रामरी भी अब न चमन में गूंजे
आता है अब भी यूं तो मौसम वो आम वाला
पर जाने हैं कहाँ गुम वो कोयलों की कूकें
प्यासी मही को बादल अब रोज छल रहा है
धरती झुलस रही है संसार जल रहा है
अब चील, गिद्ध, मैना, तीतर नजर न आते
फैला के पंख अपने ना मोर नाच पाते
अब शेर, चीते, भालू शो पीस हो गए हैं
भर खाल में जो भूसा महलों को हैं सजाते
हर जीव में जगत के आक्रोश पल रहा है
धरती झुलस रही है संसार जल रहा है
गीत में बह्र अनुसार मात्रा गिराने की छूट भी ली गई है.
इस शानदार गीत पर हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर
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