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ग़ज़ल : जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २

 

चेहरे पर मुस्कान लगाकर बैठे हैं

जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं

 

कहते हैं वो हर बेघर को घर देंगे

जो कितने संसार जलाकर बैठे हैं

 

उनकी तो हर बात सियासी होगी ही

यूँ ही सब के साथ बनाकर बैठे हैं?

 

दम घुटने से रूह मर चुकी है अपनी

मुँह उसका इस कदर दबाकर बैठे हैं

 

रब क्यूँकर ख़ुश होगा इंसाँ से, उसपर

हम फूलों की लाश चढ़ाकर बैठे हैं

------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 22, 2015 at 3:15pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्‍द्र जी, हमेशा की तरह एक शानदार ग़ज़ल हुई है जिसमे आपका अंदाज़ भी नजर आ रहा है. दिल से दाद इस ग़ज़ल पर. सादर 

Comment by Ravi Shukla on September 22, 2015 at 2:59pm

आदरणीय धर्मेन्‍द्र जी

सुन्‍दर ग़ज़ल के लिये बधाई स्‍वीकार करें

रब क्यूँकर ख़ुश होगा इंसाँ से, उसपर

हम फूलों की लाश चढ़ाकर बैठे हैं     एक ताजगी भरा नजरिया लेकर बात कहीं है आपने बधाई ।

Comment by Samar kabeer on September 21, 2015 at 11:36pm
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी,आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल
कही है आपने,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें।
Comment by ajay sharma on September 21, 2015 at 10:52pm

bahut hi asardar prastuti ......

Comment by amod shrivastav (bindouri) on September 21, 2015 at 6:49pm
वाह उम्दा
Comment by Sushil Sarna on September 21, 2015 at 1:59pm

चेहरे पर मुस्कान लगाकर बैठे हैं
जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं

कहते हैं वो हर बेघर को घर देंगे
जो कितने संसार जलाकर बैठे हैं …
बहुत ही गहन अभिव्यक्ति के अशआर आपकी ग़ज़ल को महका रहे हैं आदरणीय धर्मेन्द्र भाई। शेर दर शेर बधाई कबूल फरमाएँ।

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