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हमको तो खुल्द से भी मुहब्बत नहीं रही --- (ग़ज़ल) --- मिथिलेश वामनकर

221—2121—1221-212

 

हमको तो खुल्द से भी मुहब्बत नहीं रही

या यूं कहें कि पाक अकीदत नहीं रही

 

जाते कहाँ हरेक तरफ यार ही मिले

उनसे जुदा तो कोई रियासत नहीं रहीं

 

उसने सभी मुआमलात ख्व़ाब कह दिए

मेरी तो कोई बात हकीक़त नहीं रही

 

कितने बदल गए है सयाने ये आज के

बातों में उनके आज कहावत नहीं रही

 

दुनिया के वासिते तो हमेशा थे बे गरां

अब आपकी नजर में भी कीमत नहीं रही

 

ईमेल देख आज ये रुक्के ने कह दिया

कासिद को आज मेरी जरुरत नहीं रही

 

ए.सी. में बैठ के वो करें प्लान मुल्क का

अहले-वतन से इतनी इज़ाज़त नहीं रही

 

कोई दुआ सलाम, कोई हाल पूछ ले

इतनी भी दौरे-नौ में शराफत नहीं रही

 

कल शाम क़त्ल उसका खुलेआम हो गया

जो मुतमइन रहा कि अज़ीयत नहीं रहीं

 

मिलते नहीं है यार गले झूम झूम के

अपनी भी उस तरह की तबीयत नहीं रही

 

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 10, 2015 at 12:16am

आदरणीय सौरभ सर, ग़ज़ल पर आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. आपने सही कहा-

//मुतमइन वस्तुतः मुत्मइन की तरह लिखा जाता है, लेकिन इसे हमने मुतमईन की तरह लिखा और प्रयोग हुआ देखा है.//

दरअसल इस शब्द का बह्र में उच्चारण स्वमेव ही 'मुतमईन' हो जाता है यही कारण है कि मिसरे में गुनगुनाते हुए मुझे कहीं लय टूटती नहीं लगी. मैंने पिछली ग़ज़ल में 'मुतमईन' के रूप में ही इस्तेमाल किया था तब आदरणीय समर कबीर जी ने उसे सुधरवाया था. चूंकि ये शब्द बोलचाल में आम नहीं हुआ है इसलिए इसका मूल रूप में ही प्रयोग उचित लगा मुझे. आपके मार्गदर्शन से बात और स्पष्ट हो गई. आपका हार्दिक आभार. सादर नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 10, 2015 at 12:09am

आदरणीय  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव  सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सर ये इस मंच और मंच के गुणीजनों के मार्गदर्शन की ही देन है कि बह्र में लफ़्ज़ों को रखना सीख गया हूँ. यह भी अवश्य है कि शायरी कहना एक अलग बात है और इस मुआमले में मैं जानता हूँ कि मेरे लिए  हुनूज दिल्ली दूर अस्त

सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 10, 2015 at 12:05am

कोई दुआ सलाम, कोई हाल पूछ ले

इतनी भी दौरे-नौ में शराफत नहीं रही

मिलते नहीं है यार गले झूम झूम के

अपनी भी उस तरह की तबीयत नहीं रही

वाह ! बहुत खूब आदरणीय मिथिलेशभाईजी. 

मुतमइन वस्तुतः मुत्मइन की तरह लिखा जाता है, लेकिन इसे हमने मुतमईन की तरह लिखा और प्रयोग हुआ देखा है. जैसे उम्मीद को ग़ज़लों में उमीद की तरह या सच्चाई को सचाई की तरह स्वीकारा जाता है.

शुभेच्छाएँ

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 10, 2015 at 12:03am

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आपने सही कहा मिसरे में बह्र निभा नहीं पाया हूँ ---//जो मुतमइन था कि अज़ीयत नहीं रहीं//

इसमें था के स्थान पर रहा लेकर बह्र अनुसार संशोधित मिसरा निवेदित है-

कल शाम क़त्ल उसका खुलेआम हो गया

जो मुतमइन रहा कि अज़ीयत नहीं रहीं

मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार.... सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 9, 2015 at 8:34pm

आ० मिथिलेश जी  आप इतनी आसानी से गजल लिखते हैं , सचमुच रश्क होता है. सादर.

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 9, 2015 at 5:44pm

ख़ूबसूरत अश’आर हुए हैं आदरणीय मिथिलेश जी, दाद कुबूल करें।

जो मुतमइन था कि अज़ीयत नहीं रही

इस मिसरे में बह्र गड़बड़ा रही है। जाँच लें।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 9, 2015 at 2:11pm

आदरणीय श्याम नरेन् वर्मा जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 

Comment by Shyam Narain Verma on September 9, 2015 at 1:25pm
बहुत खूबसूरत रचना के लिये आपको बधाई ॥

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