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ग़ज़ल :: इक परिन्दा पागल-सा (मिथिलेश वामनकर)

212 / 1222 / 212 / 1222

 

वाकिया हुआ  कैसे   बाद   ये  जमानों  के

मस्ज़िदी भजन  गाये  मंदिरी अजानों के

 

हौसला  चराग़ों  का  यूं चला  तबीयत  से

ढंग ही बदल देगा  रात  की   दुकानों   के

 

यूं   बुलंदियों  में  है   तीरगी   बराबर   से

बू-ए-खूं  है आँगन में  संदली  मकानों   के

 

इक परिन्दा पागल-सा, बैठ  के  मुंडेरों  पे

मायने   बताता   है,   बारहा   उड़ानों   के

 

यूं तसल्लियाँ मेरी आज भी  मुनासिब  है

इम्तहाँ वो क्या लेंगे  मेरे  इत्मिनानों   के

 

क्यूं  कहूं  कसीदा मैं,  शान में  समंदर की 

गीत  गुनगुनाता  हूँ   बूँद  की  उठानों  के

 

दोसती  दिखाते  है    दुश्मनी   निभाते  है

हम  हुनर  बताते  है  आज  के सयानों  के

 

क़र्ज़ की तिजारत में  आसरा बचा लो तुम 

यार  खूब  देखे   है     हस्र  आशियानों  के

 

 

-------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
-------------------------------------------------------

 

 

बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन अशतर:

अर्कान –   फ़ाइलुन / मुफ़ाईलुन / फ़ाइलुन / मुफ़ाईलुन

वज़्न –    212 / 1222 / 212 / 1222

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 23, 2015 at 11:59pm

आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी, ग़ज़ल पर स्नेह और मुक्तकंठ प्रशंसा से अभिभूत हूँ हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 23, 2015 at 11:57pm

आदरणीय गिरिराज सर, सही कहा आपने, वाकिया शब्द मिसरा-ए-सानी को अधिक स्पष्ट कर रहा है,

आदरणीय सौरभ भाई जी का सुझया मिसरा -  मायने बताता है बारहा उड़ानों के ,  वाकई अच्छा लग रहा है अतः उसे जस का तस संशोधित कर रहा हूँ. मार्गदर्शन के लिए आभार.

Comment by दिनेश कुमार on February 23, 2015 at 8:27pm
My favourite Bahr...हालांकि इस पर अभी कोशिश नहीं की है मैंने। गुनगुनाने में मज़ा आ गया भाई मिथिलेश जी। सभी अशआर बढ़िया लगे।
Comment by Pari M Shlok on February 23, 2015 at 1:59pm
वाह बहुत ही लाजवाब
Comment by khursheed khairadi on February 23, 2015 at 9:07am

इक परिन्दा पागल-सा, बैठ  के  मुंडेरों  पे

पूछता  मुझे तासिर  पंख  की  उड़ानों  के

 

यूं तसल्लियाँ मेरी आज भी  मुनासिब  है

इम्तहाँ वो क्या लेंगे  मेरे  इत्मिनानों   के

 

वो  नदी  समंदर  पे  खूब कह  रहें  नज्में

हम ग़ज़ल  सुनाते है  बूँद  की  उठानों  के

 आदरणीय मिथिलेश जी बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है ,सभी अशआर लासानी हुये है |हम ग़ज़ल सुनाते हैं बूँद की उठानों की ' है या कोई और अर्थ है किंचित स्पष्ट नहीं हो रहा है ,भाव तक तो मैं पहुँच गया हूं |इस शानदार प्रस्तुति के लिए आपका हार्दिक अभिनन्दन |सादर 


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Comment by गिरिराज भंडारी on February 23, 2015 at 7:51am

आ. मिथिलेश भाई , आदरणीय सौरभ भाई जी का सुझाया मिसरा -  मायने बताता है बारहा उड़ानों के ,  बहुत अच्छा लग रहा है ।

मै इस मिसरे के पक्ष मे हूँ ॥

मतले में  --  हादसा के स्थान पर वाक़िया  मेरी समझ में बहुत सही रहेगा , ( ज़रूरी बिल्कुल नहीं है ,  मेरा मन दूसरे मिसरे में कही बात को हादसा नहीं मान पा रहा है , तो सोचा कह ही दूँ )

Comment by Hari Prakash Dubey on February 23, 2015 at 2:03am

आदरणीय मिथिलेश भाई, बहुत ही सशक्त रचना है, राग  दीपक तो छोड़िये आप तो लगता है ग़ज़लों से ही आग लगा देंगे...........

हौसला  चराग़ों  का  यूं चला  तबीयत  से

ढंग ही बदल देगा  रात  की   दुकानों   के................शानदार , हार्दिक बधाई आपको !


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 23, 2015 at 12:42am

आदरणीय डॉ.कंवर करतार 'खन्देह्ड़वी' सर जी  ग़ज़ल पर स्नेह सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 23, 2015 at 12:41am

आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव  सर, ग़ज़ल पर स्नेह और मुक्तकंठ प्रशंसा से अभिभूत हूँ. रचना आपको पसंद आई लिखना सार्थक हुआ. सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. नमन 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 23, 2015 at 12:38am

आदरणीय महर्षि भाई जी सराहना के लिए हार्दिक आभार 

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