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आगे पीछे : लघुकथा


"कहाँ आगे-आगे बढ़े जा रहे हो जी', मैं पीछे रह जा रही हूँ |"
"तुम हमेशा ही तो पीछे थी"
"मैं आगे ही रही "
"और चाहूँ तो हमेशा आगे ही रहूँ, पर तुम्हारें अहम् को ठेस नहीं पहुँचाना चाहती हूँ समझे|"
"शादी वक्त जयमाल में पीछे ..."
"डाला जयमाल तो मैंने आगे"
"फेरे में तो पीछे रही"
"तीन में पीछे, चार में तो आगे रही न "
"गृह प्रवेश में तो पीछे"
"जनाब भूल रहे हैं, वहां भी मैं आगे थी "
इसी आगे पीछे को लेकर लड़ते -हँसते  पार्क से बाहर निकले और एक दूजे से नोंकझोक करते हुए ही बेफिक्र हो बाइक से  जा रहे थे| सुनसान रास्ते पर बदमाशों ने उनकी बाइक रोक तमंचा तान दिया - "निकालो सारे गहने" चीखा एक |
दुवेश शीला को पीछे कर,बदमाशों से भिड़ गया |
जैसे ही घोड़ा दबा, पत्नी उसकी बाहों में झूलती हुई मुस्करा कर बोली " लो जी यहाँ भी मैं आगे ..|"

सविता मिश्रा

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by Hari Prakash Dubey on February 5, 2015 at 2:56pm

आदरणीया सविता मिश्रा जी, सुन्दर मार्मिक रचना हार्दिक बधाई !सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 5, 2015 at 11:18am

जीवन के तीसरे दशक से शुरू एक खट्टी-मीठी नोंक झोंक भरा रिश्ता, जो कि सबसे महत्वपूर्ण और मजबूत होता है. रचना में आपने बखूबी चित्रण किया आदरणीया सविता जी. हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by savitamishra on February 5, 2015 at 11:18am

आदरणीय vijay भैया सादर _/\_
दिल से आभार

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 5, 2015 at 11:07am
मार्मिक. बधाई, आदरणीय सविता मिश्रा जी, सादर।

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