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दादीसा के भजनों जैसी मीठी दुनिया 

पहले जैसी कहाँ रही अब अच्छी दुनिया 

प्यार मुहब्बत , भाईचारे  ,मानवता की

नहीं समझती बातें सीधी सादी ,दुनिया

दिन सी उजली रातें भी हो  जाये यारों

अँधियारे में रहे भला क्यूं आधी दुनिया

घर से ऑफिस ऑफिस से घर  फिर कुछ ग़ज़लें  

सिमट गई है इतने में ही मेरी दुनिया 

नटखट बच्चे घर की खटपट मेरी बाँहें 

कितनी छोटी सी है यारों उसकी दुनिया 

शहरों में है झूठे दर्पण दरके रिश्ते 

गाँवों में है झील सरीखी सच्ची दुनिया 

धर्म दीन की गाँठें बाँधी सरल दिलों में 

अपने जाले में आखिर ख़ुद उलझी दुनिया 

मैंने सच्ची कुछ बातें फिर दुहराई तो 

मुझको कहती है दीवाना पगली दुनिया 

जाने कब 'खुरशीद' निखारोगे तुम आकर 

देहातों की घोर अँधेरी काली दुनिया 

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Comment by Hari Prakash Dubey on January 14, 2015 at 7:55pm

घर से ऑफिस ऑफिस से घर  फिर कुछ ग़ज़लें 

सिमट गई है इतने में ही मेरी दुनिया...........सुन्दर रचना पर बधाई स्वीकार करैं आदरणीय खुरशीद जी ! सादर

 

Comment by gumnaam pithoragarhi on January 14, 2015 at 6:17pm
घर से ऑफिस ऑफिस से घर फिर कुछ ग़ज़लें

सिमट गई है इतने में ही मेरी दुनिया

नटखट बच्चे घर की खटपट मेरी बाँहें

कितनी छोटी सी है यारों उसकी दुनिया

वाह सर बहुत खूब गज़ल हुई है बधाई ग़ज़ल ने खूब प्रभावित किया
Comment by somesh kumar on January 14, 2015 at 2:53pm

शहरों में है झूठे दर्पण दरके रिश्ते 

गाँवों में है झील सरीखी सच्ची दुनिया 

बहुत खूबसूरत गज़ल 

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