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एका अपने देश का

 

भारत तेरा रूप सलोना, यहाँ-वहाँ सब माटी सोना |

 

कहीं पर्वत-घाटी, जंगल, कहीं झरना-झील, समुन्दर

कहीं गाँव-नगर, घर-आँगन, कहीं खेत-नदी, तट-बंजर

कश्मीर से कन्याकुमारी, कामरूप से कच्छ की खाड़ी

तूने जितने पाँव पसारे, एक नूर का बीज है बोना |

 

इस डाल मणिपुरी बोले, उस डाल मराठी डोले

इस पेड़ पे है लद्दाखी, उस पेड़ पे भिल्लीभिलोडी

कन्नड़-कोयल, असमी-तोता, उर्दू–बुलबुल, उड़िया-मैना

एक बाग के सब हैं पंछी, सब से चहके कोना-कोना |

 

तमिल खिली है सुन्दर-सी, खिली है मिजो सुघड़-सी

मलयालम कैसी भाती, निकोबारी रंग दिखाती

तेलुगू-गुलाब, गारो-गेंदा, कोंकणी-कमल, आ’ओ-चम्पा

रंग-सुगंध हैं अलग सभी के, सब की माला एक पिरोना |

 

नेपाली है बायाँ कंधा, दायाँ कंधा पंजाबी

बंगाली बाईं भुजा है, दाईं है भुजा गुजराती

कश्मीरी-आँख, डोगरी-नाक, सिंधी-होठ, हिन्दी-ज़बान

अंग-अंग के रूप अलग हैं, सब में एक ही प्राण सँजोना |

 

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

--- संतलाल करुण 

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Comment by Santlal Karun on July 21, 2014 at 9:19pm

आदरणीय डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,

 देश के अद्भुत स्वरुप पर श्लाघात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार !

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 20, 2014 at 9:23pm

बहुत से बिन्दुओ को जोड़कर देश का यह अद्भुत स्वरुप निर्धारण है i

Comment by Santlal Karun on July 20, 2014 at 9:20pm

आदरणीया मीना पाठक जी,

आप ने गीत पढ़ा, प्रशंसा की, सहृदय आभार 

!

Comment by Meena Pathak on July 20, 2014 at 8:31pm

बहुत सुन्दर ..बधाई 

Comment by Santlal Karun on July 19, 2014 at 4:33pm

आदरणीया मंजरी जी,

रास्ता कोई नहीं महफ़ूज दुनिया में कहीं 

जान की बाज़ी यहाँ मंजिल के खातिर चाहिए 

टूटना बेराह होना रिश्तों का है मश्गला

इसलिए इक डोर इनके दिल के खातिर चाहिए 

Comment by Santlal Karun on July 19, 2014 at 3:42pm

आदरणीय लक्षमण धामी जी, 

श्लाघात्मक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार !

Comment by Santlal Karun on July 19, 2014 at 3:41pm

आदरणीय डॉ.आशुतोष मिश्र जी,

आप के सराहना संबंधी प्रतिक्रियात्मक भावों के लिए हार्दिक आभार !

Comment by mrs manjari pandey on July 17, 2014 at 8:14pm
कौन सा है रास्ता महफूज़ जाऊँ किस तरफ़
आफ़तें तो आफ़तें हैं आयें चारों ओर से

एक झटके में बिखर जाते हैं रिश्ते टूटकर
इतना क्यूँ मुश्किल इन्हें है बाँधना इक डोर से
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 16, 2014 at 12:03pm

आ0 भाई संतलाल जी,इस देशभक्ति की भावना को बखानती और जगाती रचना के लिए कोटि कोटि बधाई ।
 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 15, 2014 at 5:02pm

आदरणीय सर ..अपने देश की अनेकता में एकता को स्थापित करती शानदार राचन के लिए हार्दिक बधाई सादर 

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