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दिल को अब के शायद चैन मयस्सर हो -ग़ज़ल

22- 22- 22- 22- 22- 2

दिल को अब के शायद चैन मयस्सर हो

तेरी क़ुर्बत में जब दिन रात गुज़र हो

 

मेरी बातों का सीधा दिल पे असर हो

गर सुनने का इक तेरे पास हुनर हो

 

बरसें जब सर्द फुहारें रिमझिम-रिमझिम

क्या कहना क्या खूब सुहाना मंज़र हो

 

इक रौ में बहते हैं चश्मे तो भी क्या

बारिश सा बरसो तो ये आलम तर हो

 

मज़्मून लगे जैसे हो इक आईना

तुम एक सुखनवर हो या शीशागर हो

 

सन्नाटे में कोई सरगोशी सी है

जैसे गहरी साँसो का मद्धम स्वर हो

 

-(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by गिरिराज भंडारी on July 10, 2014 at 7:47pm

आदरणीय शिज्जु भाई , हमेशा की तरह बेहतरीन गज़ल हुई है , दिली दाद स्वीकार करें ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 10, 2014 at 7:30pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर आपका तहेदिल से शुक्रिया

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 10, 2014 at 6:54pm

वाह ! शिज्जू भाई i

मज़्मून लगे जैसे हो इक आईना

तुम एक सुखनवर हो या शीशागर हो---क्या बात है i बहुत बहुत बधाई i

 

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