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विरह तुम्हारा सह न पाऊंकैसे मै मन को समझाऊ

तुमसे ही मै जीवन पाऊंतुमबिन न स्वागत कर पाऊं

बिछे ह्रदय में पलक-पाँवड़े,मेंह बाबा मै तुम्हे रिझाऊं 

ताल तलैया जग के सूखे,स्वर्ग लोक से तुम्हे बुलाऊं |

कमी रही क्या स्वागत मेंजो तुम इतने रूठ रहे हो

कहर ढा दिया उत्तरा-खंड में,ऐसे निष्ठुर बन बैठे हो ?

जलबिन तड़फे जग के प्राणीबोलो उनको कौन बचाए

बरसो धूम धडाके से अबस्वागत को सब आतुर पाए |

मना मना का थक बैठे अबक्या खता जो सजा दिलाए

तुम बरसो तो ठंडक पाएवरना प्रचण्ड धूप से जल जाए

स्वर्गलोक के राजा तुम तो,जग को भी तुमसे ही आशाए

बरसो अब तो जल्दी आकरस्वागत करे अगर आ जाएं |

(स्वरचित व अप्रकाशित)

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 7, 2014 at 6:11pm

रचना को सुन्दर और भावपूर्ण बता पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार श्री श्याम नारायण वर्मा जी, श्री शिज्जू शकूर जी 

एवं श्सरी जितेन्द्र "गीत|" जी 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 7, 2014 at 3:26pm

आदरणीय लक्ष्मण सर ..इस सुंदर रचना के लिए  हार्दिक बधाई सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 7, 2014 at 2:16pm

सुन्दर याचना हुई है.... 

बस अपनी रचनाओं को थोड़ा और समय दिया करें..मेझे ऐसा ही लगता है, की यदि आप रचनाओं को प्रवाह में दो तीन बार पड़ेंगे तो जो कमियाँ उनमें रह जाती हैं वो नहीं रहेंगी...

शुभकामनाएं 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 7, 2014 at 9:41am

बहुत सुंदर, बस कुछ ही दिन शेष रह गये है इन्तजार के.  बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय लक्ष्मण जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on June 6, 2014 at 7:39pm

सुंदर रचना बहुत बहुत बधाई आदरणीय लक्ष्मण सर

Comment by Shyam Narain Verma on June 6, 2014 at 4:00pm
सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिये आपको बधाइयाँ ..................

कृपया ध्यान दे...

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