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ये न फिर कहना पड़े उम्मीद ही बाकी नहीं- ग़ज़ल

2122/ 2122/ 2122/ 212

उँगलियों पर हो निशाँ आँखों में पर पट्टी नहीं

मुल्क की जम्हूरियत बस इंतिखाबी ही नहीं

 

है यही मौका कि बदलें देश की तक़दीर हम

ये न फिर कहना पड़े उम्मीद ही बाकी नहीं

 

हाल क्या होगा हमारा गर्म होगी जब धरा

होगा आँखों में समंदर पर कहीं पानी नहीं

 

गिर पड़ा वो आखरी पत्ता शजर से टूट के

अब रही कोई बहारों की निशानी भी नहीं

 

सूख जायेगा चमन होगी हवा में आग सी

फूल होगा याद में बस, खुश्बुएँ होंगी नहीं

 

इक भयानक ख़्वाब था वो ख़्वाब ही हो ऐ खुदा

सच है कुदरत से लड़ें हम अपनी ये हस्ती नहीं

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by शिज्जु "शकूर" on April 28, 2014 at 10:07am

आदरणीय मुकेश भाई आपका बहुत बहुत शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 28, 2014 at 10:06am

आदरणीय लक्ष्मण सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 28, 2014 at 10:06am

आदरणीय गिरिराज सर रचना के अनुमोदन के लिये आपका हार्दिक आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 28, 2014 at 10:05am

आदरणीय चन्द्रशेखर भाई रचना की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ

Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on April 23, 2014 at 11:01am

आदरणीय शिज़्जू भाई
खूबसूरत ग़ज़ल पर बहुत बहुत मुबारकबाद

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 22, 2014 at 11:08am

आदरणीय शिज्जू भाई, क्या मस्त गजल कही .मन का हर एक तार झनझना उठा . कोटि कोटि बधाई .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 21, 2014 at 9:05pm

आदरणीय शिज्जू भाई , बहुत सुन्दर , संतुलित गज़ल कही है , हृदय से बधाइयाँ ॥

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on April 21, 2014 at 2:08pm

वाह्ह वाह्ह्ह क्या बात है, बढिया समसामयिक ग़ज़ल। बधाई आ0!!

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