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ग़ज़ल : तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

महीनों तक तुम्हारे प्यार में इसको पकाया है

तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है

अकेला देख जब जब सर्द रातों ने सताया है

तुम्हारा प्यार ही मैंने सदा ओढ़ा बिछाया है

किसी को साथ रखने भर से वो अपना नहीं होता

जो मेरे दिल में रहता है हमेशा, वो पराया है

तेरी नज़रों से मैं कुछ भी छुपा सकता नहीं हमदम

बदन से रूह तक तेरे लिए सबकुछ नुमाया है

कई दिन से उजाला रात भर सोने न देता था

बहुत मजबूर होकर दीप यादों का बुझाया है

-------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 21, 2014 at 3:16pm

बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय गिरिराज भंडारी जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 21, 2014 at 3:16pm

बहुत बहुत शुक्रिया DEEPAK SHARMA 'KULUVI' साहब। त्रुटि की तरफ ध्यान खींचने के लिए धन्यवाद।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 21, 2014 at 3:05pm

बहुत बहुत शुक्रिया Krishnasingh जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 21, 2014 at 3:04pm

बहुत बहुत शुक्रिया जितेन्द्र 'गीत' जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 21, 2014 at 3:04pm

बहुत बहुत धन्यवाद भुवन निस्तेज साहब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 21, 2014 at 3:03pm

बहुत बहुत शुक्रिया नादिर ख़ान साहब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 21, 2014 at 3:02pm

बहुत बहुत धन्यवाद laxman dhami जी

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 21, 2014 at 1:09pm

वाह आदरणीय धर्मेन्द्र भाई जी वाह कमाल के अशआर हुए हैं बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 21, 2014 at 12:32pm

बहुत बहुत शुक्रिया Mukesh Verma "Chiragh" जी

Comment by ram shiromani pathak on April 20, 2014 at 2:37pm

बहुत खूब बहुत प्यारी ग़ज़ल आदरणीय,बहुत बहुत बधाई आपको 

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