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स्वप्न और सत्य /नीरज नीर

कभी कभी खो जाता हूँ ,

भ्रम में इतना कि 

एहसास ही नहीं रहता कि 

तुम एक परछाई हो..

पाता हूँ तुम्हें खुद से करीब 

हाथ बढ़ा कर छूना चाहता हूँ.

हाथ आती है महज शुन्यता .

स्वप्न भंग होता है ..

पर सत्य साबित होता है

क्षणभंगुर.

स्वप्न पुनः तारी होने लगता है.

पुनः आ खड़ी होती हो

नजरों के सामने .. 

नीरज कुमार नीर 

मौलिक एवं प्रकाशित 

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Comment

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Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 17, 2014 at 11:27am

काव्य में  "कि" शब्द यथा संभव स्तेमाल न हो/कम से कम हो तो अच्छा रहता है, वरना कविता लेख की तरह लगती है |

सुन्दर भाव रचना प्रस्तुति के लिए बधाई श्री नीरज जी 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 17, 2014 at 12:05am

स्वप्न भंग होता है ..

पर सत्य साबित होता है...........यथार्थ यही होता है शायद.. 

बधाई स्वीकारें आदरणीय नीरज जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 16, 2014 at 5:48pm

आदरणीय नीरज भाई , एक भाव स्थिति का सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है , सभी कभी न कभी ऐसी स्थिति से गुजरते ही हैं , आपको बधाई!!

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