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अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया

खण्ड-खण्ड सब शब्द हुए

अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया

 

बोध-मर्म रहा अछूता  

द्वार-बंद ज्ञान-गेह का

ओस चाटती भावदशा 

छूछा है कलश नेह का

 

मन में पतझड़ आन बसा

अब बसंत का दौर गया 

 

विकृत रूप धारे अक्षर

शूल सरीखे चुभते हैं

रेह जमे मंतव्यों पर

बस बबूल ही उगते हैं

 

संवेदन के निर्जन में  

नहीं दिखे अब बौर नया

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by बृजेश नीरज on January 31, 2014 at 7:26am

आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by vandana on January 31, 2014 at 7:07am

बहुत बढ़िया , सटीक और सार्थक रचना आदरणीय

आभार कि मेरा नए शब्दों से भी परिचय हुआ यथा छूछा और रेह ...

अर्थ तो ज्ञात हुआ किन्तु रेह(क्षार युक्त मिट्टी) के बारे में  थोड़ी जिज्ञासा है कि इसकी क्या २ विशेषता होती है  

Comment by ajay sharma on January 30, 2014 at 10:04pm

yadi kuch shabdon ka saral hindi arth aulabdh hota to ......

Comment by ajay sharma on January 30, 2014 at 10:03pm

bhai ji gazab 

Comment by Meena Pathak on January 30, 2014 at 8:47pm

विकृत रूप धारे अक्षर

शूल सरीखे चुभते हैं

रेह जमे मंतव्यों पर

बस बबूल ही उगते हैं

 

संवेदन के निर्जन में  

नहीं दिखे अब बौर नया..............बहुत सुन्दर ...बधाई स्वीकारें | सादर 

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