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(1)
प्रिये !
अपने मन की व्यथा को
मैं आज किसे सुनाऊँ
इस संसार में
तुम्हारे अलावा इस मन की व्यथा को
दूसरा कौन समझ सकता है
अपमान गरल को
कंठ से लगाकर तुम मीरा तो बन गयी
पर मैं चाहकर भी अब तक
नहीं बन पाया हूँ श्याम
यही मेरे मन की व्यथा है प्रिये !
जिसे तुम्हारे अलावा
और कोई नहीं समझ सकता
इस संसार में
(2)
प्रिये !
तुम्हारा मौन
बहुत कुछ कह जाता है
और बहुत बतियाती है
तुम्हारी आँखे
तुम्हारी मधुर स्मृतियाँ
एकांत में भी
तुम्हारे अस्तित्व का
निरंतर बोध कराती हैं
तुमसे बहुत कुछ कहना चाहता है मेरा मन
यह जानते हुए कि
प्रेम तो शब्दो से परे है

मौलिक एवं अप्रकाशित
सत्यनारायण सिंह

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Comment

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Comment by vijay nikore on December 31, 2013 at 1:22pm

बहुत सुंदर भाव हैं। बधाई, आदरणीय सत्यनारायण सिहं जी।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 30, 2013 at 10:56pm

तुमसे बहुत कुछ कहना चाहता है मेरा मन
यह जानते हुए कि
प्रेम तो शब्दो से परे है......................बहुत खूबसूरत 

हार्दिक बधाई इस सुन्दर भाव प्रस्तुति पर 

Comment by coontee mukerji on December 29, 2013 at 10:50pm


प्रिये !
तुम्हारा मौन
बहुत कुछ कह जाता है
और बहुत बतियाती है
तुम्हारी आँखे
तुम्हारी मधुर स्मृतियाँ
एकांत में भी
तुम्हारे अस्तित्व का
निरंतर बोध कराती हैं
तुमसे बहुत कुछ कहना चाहता है मेरा मन
यह जानते हुए कि
प्रेम तो शब्दो से परे है.....अति सुंदर.

Comment by Shyam Narain Verma on December 28, 2013 at 5:47pm
सुंदर भाव से संजोयी रचना पर बधाई स्वीकारें.....
Comment by Sushil Sarna on December 28, 2013 at 2:08pm

अपमान गरल को
कंठ से लगाकर तुम मीरा तो बन गयी
पर मैं चाहकर भी अब तक
नहीं बन पाया हूँ कृष्ण....wah bahut sundr bhaav.....is madhur parastuti ke liye haardik badhaaee

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 28, 2013 at 9:27am

जिसे तुम्हारे आलावा
और कोई नहीं समझ सकता
इस संसार में............बहुत सुंदर आदरणीय बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 27, 2013 at 8:38pm

आदरणीय सत्य नारायण भाई , वाह ! बहुत सुन्दर बात कही है ,

तुमसे बहुत कुछ कहना चाहता है मेरा मन
यह जानते हुए कि
प्रेम तो शब्दो से परे है -- बहुत खूब भाई जी ॥ बधाइयाँ ॥

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