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इस नदिया की धारा में

कितने टापू हैं उभरे

कहीं हुई उथली-छिछली 

तो कहीं भँवर हैं गहरे

 

पंख नदारद मोरों के 

तितली का है रंग उड़ा

भौंरा भी अब ये सोचे

आखिर कैसे फूल झड़ा

 

चिड़ियों की गुनगुन गायब

यहाँ नहीं अब पग ठहरे

 

कल-कल करती जलधारा

अब सहमी औ ठिठकी सी

सिकुड़ी-सिमटी देह लिए

नदिया चलती, बचती सी

 

इक मरीचिका सी छलने

बीज मरू के हैं अँकुरे

 

काली सी बदरी छाई

नील गगन भी स्याह हुआ

कोयल, पपिहा आस लिए

अब तो फूटे फिर अँखुआ

 

सीप खड़ी तट पर सोचे

कब कोई इक बूँद झरे

 

          - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 6, 2013 at 6:35pm

प्रकृति और जीव जंतु पर ग्रीष्म के प्रभाव का सुंदर वर्णन गीत के माध्यम से । बधाई बृजेश भाई।

Comment by Sachin Dev on November 6, 2013 at 6:19pm

सादर आदरणीय बृजेश जी..... बेहतरीन गीत पर हार्दिक बधाई आपको ! 

Comment by बृजेश नीरज on November 6, 2013 at 4:50pm

आदरणीय अरुण भाई आपका बहुत बहुत आभार!

Comment by बृजेश नीरज on November 6, 2013 at 4:49pm

आदरणीया मीना जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on November 6, 2013 at 4:49pm

आदरणीय नीरज मिश्र जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on November 6, 2013 at 4:48pm

आदरणीय बसंत जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 6, 2013 at 12:51pm

आदरणीय बृजेश भाई जी बहुत ही सुन्दर गीत रचा है आपने पढ़कर दिल खुश हो गया बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

Comment by Meena Pathak on November 6, 2013 at 12:39pm

सीप खड़ी तट पर सोचे

कब कोई इक बूँद झरे..............बहुत सुन्दर गीत, बधाई आप को 

Comment by Neeraj Nishchal on November 6, 2013 at 11:33am

बहुत ही बेहतरीन लिखा है आदरणीय बृजेश जी
और बहुत सार्थक भी लिखा है इसके लिए आप को
तहे दिल से शुभकामनाएं

Comment by बसंत नेमा on November 6, 2013 at 11:29am

आ0 ब्रजेश जी बहुत खूबसूरत रचना ,,,बहुत बहुत बधाई ...

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