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दिल लगाने की हिमाक़त हो रही

२ १ २ २    २ १ २ २     २ १ २

रुक्न --फ़ाइलातुन ,फ़ाइलातुन,फ़ाइलुन

बह्र --रमल मुसद्दस महजूफ

 

 

पत्थरों से ज्यों मुहब्बत हो रही

गुगुनाने को तबीयत हो रही

 

रोज करते थे  परेशाँ फूल को

आज भँवरों से अदावत हो रही

 

क्यों लुभाते हैं नज़ारे ये मुझे

दिल लगाने की हिमाक़त हो रही

 

घात में बैठे हैं लेकर कैंचियाँ

तितलियों को ये शिकायत हो रही

 

मैं डुबा दूँ नफरतों की कश्तियाँ

होंसलों की बस जरूरत हो रही

 

सब पले  इक ही नदी के दूध से 

भाइयों में क्यों बगावत हो रही

 

यूँ गिराया है मेरा शीशा- ए- दिल

बस बिखरने की गनीमत हो रही

 

उड़ चुकी हैं हसरतों की धज्जियाँ

प्यार की सच्ची कहावत हो रही

 

रहमतों के बोझ से जो झुक गए

बदगुमा उनकी शराफ़त हो रही

 

'राज' रुपये  की कहाँ कीमत बची 

देश भर में ये नसीहत हो रही

******************************

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 16, 2013 at 6:14pm

आदरणीय राज़ जी  आपकी प्रतिक्रिया में  सराहना मिली ग़ज़ल धन्य हुई दिल से आभार आपका मेरा लिखना सार्थक हुआ 

Comment by राज़ नवादवी on September 16, 2013 at 5:46pm

वाह, मज़ा आ गया अशआर का मुताला करके. सुन्दर मतला. यह शेर भी खूब है-

'रहमतों के बोझ से जो झुक गए

बदगुमा उनकी शराफ़त हो रही'

बधाई हो आदरणीया राजेश जी. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 16, 2013 at 5:25pm

आदरणीय अखिलेश जी आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से शुक्रिया आपकी इस्स्लाह भी सही है सादर आभार 

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 16, 2013 at 5:05pm

आ. राजेश कुमारी जी , अच्छी गज़ल की बधाई।     'राज' रुपये  की कहाँ कीमत बची देश भर में ये नसीहत हो रही..................... 

ऐसा कहें तो....  राज' रुपये  की कहाँ कीमत बची देश भर इसकी फजीहत हो रही। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 16, 2013 at 3:19pm

आदरणीय एडमिन जी ग़ज़ल के मतले के  मिसरा ए सानी मे गुनगुनाने कर दीजिये प्लीज सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 16, 2013 at 3:17pm

हाँ आदरणीय गिरिराज जी आप सही कह रहे हैं टंकण त्रुटी पर अभी ध्यान गया आपकी सराहना मिली मेरी ग़ज़ल धन्य हुई लिखना सार्थक हुआ ,तहे दिल से आभारी हूँ |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 16, 2013 at 3:15pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी ,  बहुत अच्छी गज़ल हुई है , कुछ शे र बहुत अच्छे लगे -मतले के  मिसरा ए सानी मे टंकण की गलती से गुनगुनाने की जग गुगुनाने छप गया है !! उम्दा गज़ल के लिये बहुत बहुत बधाई !!

घात में बैठे हैं लेकर कैंचियाँ

तितलियों को ये शिकायत हो रही

रहमतों के बोझ से जो झुक गए

बदगुमा उनकी शराफ़त हो रही -----------------------  ये दो शेर बहुत पसन्द आये !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 16, 2013 at 3:14pm

अभिनव अरुन जी ग़ज़ल पर प्रथम प्रतिक्रिया स्वरुप  आपकी सराहना मिली मेरी ग़ज़ल धन्य हुई लिखना सार्थक हुआ ,तहे दिल से आभारी हूँ 

Comment by Abhinav Arun on September 16, 2013 at 2:59pm

पत्थरों से ज्यों मुहब्बत हो रही

गुगुनाने को तबीयत हो रही

 

घात में बैठे हैं लेकर कैंचियाँ

तितलियों को ये शिकायत हो रही

वाह आ. राजेश जी क्या कहने बहुत अच्छी ग़ज़लें कह रही हैं आप तबीयत प्रसन्न हो गयी वाह बहुत बधाई आपको !

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