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रोज़ा, नमाज़, हज औ तिलावत न कर सका

रोज़ा, नमाज़, हज औ तिलावत न कर सका
अपने वजूद की मैं हिफाज़त न कर सका

दैरो हरम में आ के तो सजदा किया ज़रूर
लेकिन कभी मैं दिल से इबादत न कर सका

बिकता रहा ज़मीर भी कौड़ी के भाव में
मैं चाहकर भी इसकी हिफ़ाज़त न कर सका

तेरे क़दम भी रुक गए उल्फत की राह में 

मै भी अकेला घर से बग़ावत न कर सका

तेरे बदन में देखकर पाकीज़गी की आग 
कोई भी शख्स छूने की ज़ुर्रत न कर सका

मैख़ाने में गुज़ार दी 'साहिल' ने सारी उम्र
साक़ी के दिल पे फिर भी हुकूमत न कर सका

"मौलिक व अप्रकाशित"

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 3, 2013 at 1:40pm

सुशील भाई , लाजवाब गज़ल , वाह वाह !!

बिकता रहा ज़मीर भी कौड़ी के भाव में
मैं चाहकर भी इसकी हिफ़ाज़त न कर सका ---------- बधाई !!

Comment by विजय मिश्र on September 3, 2013 at 12:44pm
काबिलेतारीफ लिखी सुशीलजी ,बधाई स्वीकारें .
Comment by Sushil Thakur on September 3, 2013 at 12:40pm

आ० Shijju Sab, Ramesk Kumar, Sab, Dr Prachi Mam, Vandana Mam, Raz Sab  bahut bahut shukriya.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 3, 2013 at 10:26am

वाह बहुत खूब सुशील सर बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है

Comment by रमेश कुमार चौहान on September 3, 2013 at 10:17am

मैख़ाने में गुज़ार दी 'साहिल' ने सारी उम्र

साक़ी के दिल पे फिर भी हुकूमत न कर सका

वाह क्या बात है बहुत खु ब । बधाई आपको


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 3, 2013 at 9:25am

बहुत शानदार गज़ल हुई है आ० सुशील ठाकुर जी 

हार्दिक बधाई 

Comment by vandana on September 3, 2013 at 6:54am

बिकता रहा ज़मीर भी कौड़ी के भाव में 
मैं चाहकर भी इसकी हिफ़ाज़त न कर सका

शानदार भाव हैं ग़ज़ल के 

Comment by राज़ नवादवी on September 2, 2013 at 10:12pm

बहुत खूब! अच्छे तेवर के अशआर हैं. मक्ते के वज़न/बह्र को दुबारा देख लें! 

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