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राजू मोबाइल से गाना सुनने में मस्त था- "वो इक लड़की थी जिसे मैं प्यार करता था।"
तब तक उसके कानों में पिता जी की आवाज गूंजी- "सूरदास का पद नहीं सुन सकते थे क्या? या मीरा, तुलसी, कबीर का भजन सुनते?"
राजू डर गया और उसने गाना सुनना बंद कर दिया।
दो दिन बाद की बात है पिता जी अपने मोबाइल से गीत सुन रहे थे-"धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग काला न पड़ जाये।"
तब तक उनके कानों में आवाज गूँजी- "पिता जी! यह किसका पद या भजन है?"

मौलिक व अप्रकाशित
(संशोधित)

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Comment

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Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 11, 2013 at 4:46pm
आदरणीय गुरुजनवृंद ( विशेषकर आदरणीय वीनस जी को सम्बोधित ) ! //यह अस्वाभाविक है। न तो पिता अभी इतने दकियानूस हुए हैं और न ही पुत्र इतने मुँहफट हुए हैं।//
आदरणीय यह कथा बिल्कुल मेरे पड़ोस की है। और जहाँ मुझे कथा मिली वह कोई और नहीं बल्कि कथा का पात्र राजू है। उसके इसी प्रश्न पर पिता जी ने उसे चार हाथ जमा दिया था। और वह पिटा हुआ बाग में बैठा था जहाँ मैं पहुँच गया। तब उसने अपनी कथा बतायी, और मैंने उसी के शब्दों में इसे व्यक्त कर दिया।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 11, 2013 at 4:12pm

//खुबसूरत लेकिन बच्चे के मुख से ये निकलना चाहिए था ,. पिता जी ये किसके पद हैं ?//

भाई रवि जी ने संयत सटीक और सार्थक सुझाव दिया है.  हार्दिक बधाई

Comment by Rash Bihari Ravi on July 11, 2013 at 4:09pm

खुबसूरत लेकिन बच्चे के मुख से ये निकलना चाहिए था ,

पिता जी ये किसके पद हैं ?

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 11, 2013 at 4:01pm

भाई जी यह चुटकुला होता तो मैं मान भी लेता अन्य सभी ने सब कुछ कह ही दिया है.

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on July 11, 2013 at 3:59pm

asambhav ............ye kathaa padh niraasha huee ...........


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 11, 2013 at 3:42pm

यह कथा है ? वह भी विन्ध्येश्वरी त्रिपाठी विनय जी की कलम से, निराशा हुई ! 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 11, 2013 at 3:30pm

भाईजी, यह रचना तो यहाँ प्रस्तुत हुई दीख रही है !

फिर आपने आज मुझसे इस रचना पर कैसा व्यक्तिगत सुझाव मांगा है ?  हम पूछ इस लिए रहे हैं कि जब मेरे सुझावों की प्रतीक्षा ही भारी पड़े और रचना प्रस्तुत हो जाये तो मेरे सुझावों की आवश्यकता ही क्या है ! जबकि मैंने मात्र दस मिनटों में आपके पत्र का प्रत्युत्तर दिया था ! भला होता आपने अपनी इस रचना का मात्र लिंक दे दिया होता, यह कर कि रचना प्रकाशित हो गयी है, आप टिप्पणी दें. 

अव्वल तो मैं स्वय ही समयानुसार रचनाओं पर प्रतिक्रिया देता हूँ. 

भाईजी,  मै आपके उक्त पत्र तथा अपने उत्तर को सार्वजनिक कर रहा हूँ. ..

//..निम्नलिखित रचना आपके समीक्षार्थ प्रेषित है, इसमें कौन सा पक्ष कमजोर है जहाँ परिवर्तन कर रचना को और भी बेहतर बनाया जा सकता है। कृपया अनुग्रह कर शिष्य को कृतार्थ करें।.. (आगे आपकी लघुकथा उद्धृत है) //

मेरा उत्तर --

इस रचना का कथ्य कमजोर है.

जो कुछ यह रचना कहना चाहती है वह स्पष्ट रूप से संप्रेषित नहीं हो रहा है. 

पारिवार में घनघोर रूप से व्याप्त ’पर उपदेसे कुसल बहुतेरे’ जैसी विसंगति को व्यवस्थित शब्द मिलने के स्थान पर आपकी कथा के माध्यम से पुत्र के मन में पिता के प्रति निहित विद्रुप खीझ मानों बाहर आ रही है.

जबकि होना यह चाहिये था कि ऐसी कोई खीझ रेखांकित न होती. अन्यथा यह उक्त पारिवार की नकारात्मकता को संप्रषित करेगी. फिर होगा यह कि कतिपय पाठक इसी अन्यथा आयाम को सतह पर ला कर आपकी लघुकथा को आँकने लगेंगे.  आपकी लघुकथा अपने हेतु से भटक जायेगी.

संभवतः मैं अपने कहे को सही ढंग से साझा कर पाया.

Comment by DR SHRI KRISHAN NARANG on July 11, 2013 at 12:56pm

Bahut achhi laghu katha, Vinay ji. Yadi hum apni baat par amal nahin karte to hamaare bachche kaise karenge?

Comment by वीनस केसरी on July 11, 2013 at 11:25am

कथा पात्रों के संवाद अस्वभाविक है
न आज पिता ऐसे दकियानूसी रह गये हैं न पुत्र अभी ऐसे मुंहफट हुए हैं ....

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 11, 2013 at 11:20am
आदरणीय वीनस सर जी! अस्वाभाविक?
रचना या रचना की भावभूमि, या और कुछ?

कृपया ध्यान दे...

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