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क्या है तू ऐं ज़िन्दगी ?
मैं तुझे पहचान न सकी।
तेरे तो हैं रूप अनेक ,
कभी तुझे जान  न सकी।
क्या है तू ऐं ज़िन्दगी ?
देखा है मैंने तुझे कभी ,
 फूलों की तरह खिलते हुए।
और कभी देखा है मैंने तुझे,
शोलों की तरह जलते हुए।
तेरी कोई पहचान न रही,
कभी तुझे जान न सकी।
क्या है तू ऐं ज़िन्दगी ?
कहीं है तू पुष्प-सी-कोमल
तो कहीं काँटों-सी-कठोर।
कहीं पर है प्यार तेरा,
तो कहीं है अन्याय घोर।
तेरी कभी कोई शान न रही,
कभी तुझे जान न सकी।
क्या है तू ऐं ज़िन्दगी ?
कहीं पर तू बनी है रानी,
तो कहीं है आँखों का पानी।
कहीं मौत की चाहत में,
तुझसे है आत्मा अकुलानी।
तेरी कम आन हो न सकी,
कभी तुझे जान न सकी।
क्या है तू ऐं ज़िन्दगी ?
मैं तुझे पहचान न सकी।
तेरे तो हैं रूप अनेक,
कभी तुझे जान न सकी।
क्या है तू ऐं ज़िन्दगी ?
'सावित्री राठौर'
[मौलिक एवं अप्रकाशित ]

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Comment by coontee mukerji on March 26, 2013 at 9:28pm

सवित्री जी,जब तक हम ज़िंदगी को समझ पाते हैं वक्त हाथ से निकल चुका होता है .बहुत सुन्दर रचना.बधाई.

Comment by vijay nikore on March 26, 2013 at 5:47pm

 

आदरणीया सावित्री जी:

 

ज़िन्दगी के इतने सारे पहलू दिखाती रचना के लिए बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 26, 2013 at 5:01pm

आदरणीया सावित्री राठौर जी, जिन्दगी बस प्रकृति ही है कब किधर करवट लेती है कोई न जान सका। तेरे तो हैं रूप अनेक,
कभी तुझे जान न सकी।
क्या है तू ऐं ज़िन्दगी? बहुत सुन्दर रचना, बधाई स्वीकार करें। सादर

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