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आँख जैसे लगी, ख़ाक घर हो गया
जुल्म का प्रेत कितना निडर हो गया ।

कुछ दरिन्दों ने ऐसी मचाई गदर
खौफ की जद में मेरा नगर हो गया ।

थी किसी की दुकाँ या किसी का महल
चन्द लम्हों में जो खण्डहर हो गया ।

है नजर में महज खून ही खून बस
आज श्मसान 'दिलसुखनगर' हो गया ।

थी ख़बर साजिशों की मगर, बेखबर !
ये रवैया बड़ा अब लचर हो गया ।

कौन सहलाये बच्चे का सर तब 'सलिल'
जब भरोसा बड़ा मुख़्तसर हो गया ।

------  आशीष 'सलिल' (हैदराबाद)

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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 23, 2013 at 11:38pm

वाह वाह आशीष भाई .............बेहतरीन ग़ज़ल कही है

ढेरों दाद क़ुबूल कीजिये

इस मुकम्मल ग़ज़ल के लिए

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on February 23, 2013 at 11:19pm

जी आदरणीय नादिर सर सही कहा आपने... हादसों पर हादसे होते रहते हैं और राजनीति अपनी रोटी सेंकती है | दुखद है |

Comment by नादिर ख़ान on February 23, 2013 at 10:58pm

घायल मन

ताकती सूनी आँखें

उजड़े घर

फिर एक बार   दिल छलनी -छलनी हो गया ... 

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on February 23, 2013 at 10:18pm

आदरणीय सौरभ सर जी, हम सभी के दुःख को एक आवाज देने की कोशिश की है।  हौसला अफजाई के लिये तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ |

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on February 23, 2013 at 10:16pm

धन्यवाद आदरणीया 'मंजरी जी'.... शुक्रिया आदरणीय 'रविकर जी'....


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 23, 2013 at 6:19pm

भाईआशीषभाईजी, हमारे क्षुब्ध मन से आपकी ग़ज़ल बतियाती लगी है.  इस मुकम्मल मुसलसल ग़ज़ल के लिए दाद कुबूल फ़रमायें.
शुभ-शुभ

Comment by mrs manjari pandey on February 23, 2013 at 5:48pm

    आँख  जैसे लगी खाक   घर हो गया।ज़ुल्म का प्रेत कितना निडर हो गया। "   आदरणीय आशीष सलिल जी सामायिक घटनाओं पर ज़ाहिर सी चिंता .बहुत खूब।पूरा मंज़र नाचने लगता है।

Comment by रविकर on February 23, 2013 at 4:22pm

मार्मिक

लोग मरते तो हैं ।
जख्म भरते तो हैं ॥

बम फटे हैं बेशक -
एलर्ट करते तो हों ।

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on February 23, 2013 at 4:01pm

तहेदिल से शुक्रिया डॉ प्राची जी...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on February 23, 2013 at 3:20pm

हैदराबाद के आतंकी विस्फोटों की दहशत से रूबरू हो, अंतस्थल तक दहले ह्रदय के उद्गारों को बाखूबी अभिव्यक्त किया है ग़ज़ल में आदरणीय आशीष जी....

इस सामयिक ग़ज़ल पर बधाई.

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