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शाम को नजरें मिली यूँ, क्या कहें
आस की उपजी कली यूँ, क्या कहें

बात आँखों से चली यूँ, क्या कहें
खिल उठी मन की गली यूँ, क्या कहें

रूह से गोरी-सलोनी सी लगी
देह से वो साँवली यूँ, क्या कहें

धूप उस पर जुल्म करना छोड़ दे
जो है मक्खन की डली यूँ, क्या कहें

मिल भी जाते गर कदम तकदीर में
पर हमारी कुण्डली यूँ, क्या कहें

वो रियासत की हैं शहजादी 'सलिल'
और तुम दैनिक कुली यूँ, क्या कहें

-- आशीष 'सलिल'/हैदराबाद (14/3/13)

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Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on March 16, 2013 at 11:39pm

Saurabh Pandey  सर, हौसलाअफजाई के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया ।
सिनाद दोष से गज़ल को मुक्त करने की कोशिश कर रहा हूँ । गज़ल के शेर और अच्छे हों, इसकी भी कोशिश जारी है ।
आपके आशीष का सदैव आकांक्षी रहूँगा । :)

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on March 16, 2013 at 11:24pm

गजल पसंदगी के लिए तहे दिल से शुक्रिया  Yogi Saraswat भाई जी |

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on March 16, 2013 at 11:23pm

वीनस केसरी  भाई जी आपके इंगित करने के बाद गजल में सिनाद दोष पर नजर गयी । असल में पहले मतला का काफिया कुछ और लिया था, लेकिन फिर बदल दिया । खैर, मैं मतला और मक्ता के काफियों को दुरुस्त कर दूँगा।

आपकी हर टिप्पणी और सुझाव मेरी गजल की सीख को और मजबूत करते हैं ।
आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।   :)

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on March 16, 2013 at 11:17pm

डॉ. सूर्या बाली "सूरज" जी तहेदिल से शुक्रिया !!!  आप जैसे उम्दा गजलगो से दाद पाकर धन्य हो गया । :)

Dr.Prachi Singh  जी बहुत-बहुत शुक्रिया !!! :)

Savitri Rathore जी शुक्रिया !!!  :)

बृजेश कुमार सिंह (बृजेश नीरज) भाई जी आपको अशआर पसंद आये, गजल कहना सार्थक हुआ । शुक्रिया | :)

SANDEEP KUMAR PATEL  भाई जी आपकी दाद कुबूल है ! कुबूल है !! कुबूल है !!! :)


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Comment by Saurabh Pandey on March 16, 2013 at 9:36pm

भाई आशीष सलिल जी,   बहुत-बहुत खूबसूरत और मुलायम ग़ज़ल हुई है. और भी मुलायम हो सकती थी, भाई.

ढेरों दाद कुबूल करें.

एकबात :  आपने काफ़िया चुनने में सिनाद दोष मोल ले लिया है, हुज़ूर.

Comment by Yogi Saraswat on March 16, 2013 at 11:31am
धूप उस पर जुल्म करना छोड़ दे
जो है मक्खन की डली यूँ, क्या कहें

मिल भी जाते गर कदम तकदीर में
पर हमारी कुण्डली यूँ, क्या कहें

बहुत सुन्दर अश आर

Comment by वीनस केसरी on March 15, 2013 at 11:49pm

बहुत शानदार ग़ज़ल कही है, ढेरों ढेर दाद क़ुबूल करें

सिनाद ऐब के प्रति सचेत होने की जरूरत है

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on March 15, 2013 at 9:57pm

बहुत सुन्दर क्या बात है साहब

बेहतरीन मीठी सी ग़ज़ल के लिए ढेरों दाद क़ुबूल कीजिये

Comment by बृजेश नीरज on March 15, 2013 at 7:40pm
//मिल भी जाते गर कदम तकदीर में
पर हमारी कुण्डली यूँ, क्या कहें//

वाह क्या बात! बहुत बेहतरीन! हर शेर लाजवाब!

Comment by Savitri Rathore on March 15, 2013 at 5:00pm

आशीष 'सलिल' जी, सुन्दर भावों से युक्त सुन्दर रचना हेतु आपको बधाई हो।

शाम को नजरें मिली यूँ, क्या कहें
आस की उपजी कली यूँ, क्या कहें

बात आँखों से चली यूँ, क्या कहें
खिल उठी मन की गली यूँ, क्या कहें

अतिसुन्दर .........

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