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पर्दा
हर समय मुस्कराता चेहरा, और दूसरों के चेहरे पे मुस्कराहट बिखेर देना उस का बाएँ हाथ का काम था।
कई बार मैं खुद छुप कर आईने के सामने उस जैसा मुस्कराने की कोशिश करता, मगर असफल रहता ।
तब खुद को कहता “क्या कमी है, अगर मैं मुस्करा दूँ तो कौन सा पहाड़ गिर जायेगा ?”
मगर कल शाम से सारा मौहला उदास नज़र आ रहा था ।
किसी ने आकर बताया कि सुबह के दस बज गए, अभी तक दरवाज़ा नहीं खुला था।
मैं और भी उदास हो गया,पता नहीं चल रहा ऐसा क्यूँ हुआ।
तब मेरे कानों में इक आवाज़ सुनाई दी।
“क्या" हुआ है?" उसको,पता है तुझे” आवाज़ थोड़ा रुक कर फिर बोली।
“तुझ को पता है, उसने क्यों किया ये सब।”
"नहीं"
“मुस्कराहट,दर्द से हार गई होगी।”
“लगता है जिन्दगी का सच जीत गया, किसी हारे परिंदे के टूट चूके घौंसले की तरह ”, आवाज़ ने कहा।
"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by VIRENDER VEER MEHTA on May 16, 2018 at 10:45pm
बहुत उम्दा रचना आदरणीय मोहन बेगोवाल जी। पर्दे के पीछे छिपे सच कितने सच हो सकते है और कितने झूठ, इस बात पर बेहतरीन कथ्य सामने रखती रचना के लिये हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
Comment by Samar kabeer on May 13, 2018 at 9:45pm

जनाब डॉ.मोहन बेगोवाल जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई,बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Kumar Gourav on May 13, 2018 at 8:43pm
पर्दे के पीछे का सच , बहुत सुंदर विचारोत्तेजक रचना । बहुत बहुत बधाई ।
Comment by Mohan Begowal on May 12, 2018 at 10:55pm

 आदरनीय शेख उसमानी साहिब जी,रचना पर टिपणी करने के लिए धन्यावाद 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on May 12, 2018 at 8:43pm

पीड़ता और अवलोकनकर्ता की पीड़ाओं को उभारती पर्दे के पीछे के सच पर बेहतरीन विचारोत्तेजक कसी हुई लघुकथा। हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन बेगोवाल साहिब।

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