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मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं (ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ १२१२ २२

 

अंधे बहरे हैं चंद गूँगे हैं

मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं

 

मैं कहीं ख़ुद से ही न मिल जाऊँ

ये मुखौटे नहीं हैं पहरे हैं

 

आइने से मिला तो ये पाया

मेरे मुँह पर कई मुँहासे हैं

 

फेसबुक पर मुझे लगा ऐसा

आप दुनिया में सबसे अच्छे हैं

  

अब जमाना इन्हीं का है ‘सज्जन’

क्या हुआ गर ये सिर्फ़ जुमले हैं

-----------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 4, 2016 at 8:58pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुरेश जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 4, 2016 at 8:58pm

आदरणीय रक्ताले जी, बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 4, 2016 at 1:51pm
आदरणीय धर्मेंद्र जी खूबसूरत प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई प्रेषित है । सादर ।
Comment by Ashok Kumar Raktale on October 3, 2016 at 9:10pm

वाह ! बहुत खूबसूरत गजल हुई है आदरणीय धर्मेन्द्र सिंह साहब. बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें.सादर.

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 2, 2016 at 5:59pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय बृजेश कुमार ‘ब्रज’ जी।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 2, 2016 at 5:59pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय गिरिराज भंडारी जी।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 2, 2016 at 5:58pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय आशीष सिंह जी।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 2, 2016 at 5:58pm

आदरणीय समर कबीर साहब एवं रवि शुक्ला जी, आप सही फरमा रहे हैं। बात समझ में आ गई, बहुत बहुत धन्यवाद।

Comment by Samar kabeer on October 2, 2016 at 3:51pm
जी,रवि शुक्ल जी सही फ़रमा रहे हैं,'परिधि'शब्द की वजह से ही उलझन हुई ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 2, 2016 at 3:07pm

वाहह बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल....बधाइयाँ

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