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दर्द दे वो चले पर दवा कौन दे,
साँस थमने लगी अब दुआ कौन दे।

चाहतें दफ़्न सब हो के दिल में रही,
जब जफा ही लिखी तो वफ़ा कौन दे।

प्यास बढ़ती रही आप छिपते रहे,
आग दिल में लगी पर बुझा कौन दे।

मंजिलें दूर जब हमसे जाने लगी,
हाथको थाम के आसरा कौन दे।

आशियाँ तक हमारा गया है उजड़,
याद में जो उसे अब बसा कौन दे।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

(212 212 212 212 बहर की रचना)

मौलिक व अप्रकाशित

(धुन- कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियों)

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Comment

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Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on October 7, 2016 at 7:10am
आदरणीय कल्पना जी बहुत आभार।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 6, 2016 at 9:55pm

मंजिलें दूर जब हमसे जाने लगी,
हाथको थाम के आसरा कौन दे।

आशियाँ तक हमारा गया है उजड़,
याद में जो उसे अब बसा कौन दे। बहुत खूब आदरणीय | हार्दिक बधाई

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on September 26, 2016 at 5:13pm
या फिर
"चाहतें दफ़्न सब हो के दिल में रही।"
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on September 26, 2016 at 5:11pm
आ.शिज्जु भाई आपके comment और सुझाव मेरे लिए अमूल्य है। आ.शिज्जु भाई दफ़्न को दफन लिखा ज सकता है क्या जैसे हिन्दी में हम धर्म को अपभ्रंश रूप में धरम लिखते हैं। यदि दफ़्न को दफन करना दोष है तो ग़ज़ल में निम्न सुधार हो जाएगा

"चाहतें सब दबी दिल के अंदर रही"

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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 26, 2016 at 4:05pm

आ. वासुदेव जी अच्छी ग़ज़ल हुई है, काफियाबंदी एकदम दुरूस्त है, नुक्ते को लेकर इससे पहले भी कई दफे चर्चा हुई है, लेकिन यहाँ काफिया में नुक्ते का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, अलबत्ता आपने दफ्न को दफन के वज्न में बाँधा है ज़रा देख लीजिएगा. आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर मैं ग़ज़ल की कक्षा का विद्यार्थी हूँ आपसे अनुरोध है कि उस्तादों की फेहरिस्त में मेरा नाम न रखें :-(

Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on September 25, 2016 at 7:45pm
आ डॉ साहब वफ़ा में नुक्ते वाली बात मेरी समझ में नहीं आई। वफ़ा को मैं बड़ी आसानी से वफा भी type कर सकता था। नुक्ता यदि अड़चन है तो क्या मैं ग़ज़ल में 'वफा' शब्द इस्तेमाल कर सकता हूँ।
Comment by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on September 25, 2016 at 7:37pm
आ. डॉ साहब आपके comment के लिए बहुत आभारी हूँ। इस विधा में मैं अभी बहुत नया हूँ। यह मेरी दूसरी ग़ज़ल है जो मैंने लिखी थी। मैंने कहीं पढ़ा था कि काफ़िया केवल अंतिम स्वर का भी लिया जा सकता है और इस ग़ज़ल में मैंने 'आ' काफ़िया लिया है जो मतले में दवा और दुआ दो तरह के शब्द देकर मैंने अपनी जान में स्पष्ट भी करने की कोशीश की है। इस तथ्य से में अवगत था।
गुणी जन इस बारे में मेरा कृपया मार्ग दर्शन करें।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 25, 2016 at 7:18pm

आ० वासुदेव जी ----------आपने अच्छी गजल कही . एक बात का मुझे संदेह है क्या दवा, दुआ, वफ़ा, बुझा सही काफिये हैं  क्योंकि दवा में अवा है, दुआ में उआ है , वफ़ा में नुक्ता है  बुझा में भी उझा है . उस्तादों से राय  चाहिए , आ० समर कबीर साहिब , आ०  सौरभ जी ,आ० शिज्जू भाई  

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