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ग़ज़ल : पुल की रचना वो करते जो खाई के भीतर जाते हैं

बह्र : 22 22 22 22 22 22 22 22

 

वो तो बस पुल पर चलते जो गहराई से घबराते हैं

पुल की रचना वो करते जो खाई के भीतर जाते हैं

 

जिनसे है उम्मीद समय को वो पूँजी के सम्मोहन में

काम गधों सा करते फिर सुअरों सा खाकर सो जाते हैं

 

धूप, हवा, जल, मिट्टी इनमें से कुछ भी यदि कम पड़ जाए

नागफनी बढ़ते जंगल में नाज़ुक पौधे मुरझाते हैं

 

जिनके हाथों की कोमलता पर दुनिया वारी जाती है

नाम वही अपना पत्थर के वक्षस्थल पर खुदवाते हैं

 

नफ़रत की भट्ठी में शब्दों के ईंधन से आग लगाकर

सत्ता देवी के तर्पण को ख़ून हमारा खौलाते हैं

--------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 24, 2016 at 11:39pm

शुक्रिया बृजेश जी

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 24, 2016 at 4:47pm

बहुत ही शानदार सार्थक 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 24, 2016 at 1:29pm

शुक्रिया आदरणीय आशुतोष जी

Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 24, 2016 at 10:46am

आदरणीय धर्मेन्द्र जी ..आज एक अलहदा अंदाज में आपकी रचना के दीदार हुए, यथार्थ का चित्रण करती शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करिए सादर 

कृपया ध्यान दे...

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