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ग़ज़ल : जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है

२२ २२ २२ २२ २२ २२ २

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जब धरती पर रावण राजा बनकर आता है

जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है

 

केवल घोटाले करना ही भ्रष्टाचार नहीं

भ्रष्ट बहुत वो भी है जो नफ़रत फैलाता है

 

कुछ तो बात यकीनन है काग़ज़ की कश्ती में

दरिया छोड़ो इससे सागर तक घबराता है

 

भूख अन्न की, तन की, मन की फिर भी बुझ जाती

धन की भूख जिसे लगती सबकुछ खा जाता है

 

करने वाले की छेनी से पर्वत कट जाता

शोर मचाने वाला केवल शोर मचाता है

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(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2016 at 10:38pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2016 at 10:35pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया राजेश कुमारी जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2016 at 10:33pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय गिरिराज जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 27, 2016 at 10:31pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय रवि शुक्ला जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 26, 2016 at 10:43pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, बहुत शानदार ग़ज़ल कही है आपने. मतला से आखिरी शेर तक शानदार. शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 26, 2016 at 2:27pm

कुछ तो बात यकीनन है काग़ज़ की कश्ती में

दरिया छोड़ो इससे सागर तक घबराता है------क्या बात है बहुत बढ़िया शेर 

आ० धर्मेन्द्र जी ,इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए दाद कुबूलें. 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 25, 2016 at 7:55pm

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , अच्छी गज़ल हुई है , दिल सेबधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by Ravi Shukla on April 25, 2016 at 1:40pm

आदरणीय धर्मेन्‍द्र जी अच्‍छी गजल के लिये दिली मुबारक बाद हाजिर है 

कुछ तो बात यकीनन है काग़ज़ की कश्ती में

दरिया छोड़ो इससे सागर तक घबराता है  बहुत खूब अंदाजे बया के लिये पुन: बधाई 

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