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थाप पे तबले की ....


थाप पे तबले की ....

थाप पे  तबले  की  घुंघरू बजने लगे
किसने  पहचानी  इनकी  परेशानियां
दाम लगने लगे ज़िस्म थिरकने लगे
आई नज़र में नज़र तो बस हैवानियाँ
थाप पे तबले की ......

सब  खरीददार  थे  कोई  अपना न था
सूनी  आँखों  में  कोई भी सपना न था
चीर डाला  हर  एक  हाथ ने जिस्म को
बज़्म में चश्म से दर्द छलकना  न  था
शोर साँसों  की सिसकी का हर ओर था
हर  सिम्त  थी  बस नादान नादानियां
पाँव  घुंघरू  बंधे  महफ़िल में बजते रहे
किसने   पहचानी  इन  की  परेशानियां
दाम  लगने  लगे  ज़िस्म थिरकने लगे
आई  नज़र  में  नज़र तो बस हैवानियाँ
थाप पे तबले की ......

जिस्म  ही  जिस्म बेजान थे दूर तलक
उदास जिस्मों  में   थीं   बेनूर रानाईयां
हर ठुमके पे   सिक्कों   की   बरसात थी
थी  किस्मत   में बस इन की तन्हाईयाँ
मतलबी  बाज़ार  थे मतलबी रिश्ते वहां
हो  गयी  चुप सलवटों में कई कहानियाँ
तरबतर   खून   से   पाँव रक्स करते रहे
रक्स    आँखों   में   करती थी वीरानियाँ
दाम  लगने  लगे   ज़िस्म थिरकने लगे
आई  नज़र  में  नज़र  तो बस हैवानियाँ

थाप पे तबले की ......

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on February 14, 2016 at 1:56pm

आदरणीय    सतविंदर कुमार   जी प्रस्तुति में निहित भावों को मान देने का दिल से आभार।

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on February 11, 2016 at 8:56am
भावों का बेहतरीन उद्गार हुआ है इस गीत में आदरणीय सुशिल सरना जी।सादर हार्दिक बधाई।
Comment by Sushil Sarna on February 9, 2016 at 9:11pm

आदरणीय     मिथिलेश वामनकर   जी प्रस्तुति में निहित भावों को मान देने का दिल से आभार।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 9, 2016 at 8:11pm
आदरणीय सुशील सरना सर
बहुत शानदार प्रस्तुति है हार्दिक बधाई आपको।
Comment by Sushil Sarna on February 9, 2016 at 7:31pm

आदरणीया    Samar kabeer    जी प्रस्तुति में निहित भावों को मान देने का दिल से आभार।

Comment by Sushil Sarna on February 9, 2016 at 7:31pm

आदरणीया    Rahila     जी प्रस्तुति में निहित भावों को मान देने का दिल से आभार।

Comment by Samar kabeer on February 9, 2016 at 2:38pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत ख़ूब वाह,इस शानदार प्रस्तुति के लिये बधाई स्वीकार करें !
Comment by Rahila on February 9, 2016 at 12:52pm
बहुत अच्छी रचना हुई आदरणीय सुशील सर जी! "जिस्म बेजान थे दूर तलक
उदास जिस्मों में थीं बेनूर रानाईयां
हर ठुमके पे सिक्कों की बरसात थी
थी किस्मत में बस इन की तन्हाईयाँ
मतलबी बाज़ार थे मतलबी रिश्ते वहां
हो गयी चुप सलवटों में कई कहानियाँ "दिल को छू गई ये पंक्तियां।बहुत बधाई आपको । सादर

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