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ग़ज़ल :: (बह्र-ए-शिकस्ता) -- कभी ये रहा है बेहद, कभी मुख़्तसर रहा है -- मिथिलेश वामनकर

फ़'इ'लात फ़ाइलातुन फ़'इ'लात फ़ाइलातुन 

1121 - 2122 - 1121 – 2122

 

कभी ये रहा है बेहद, कभी मुख़्तसर रहा है

मेरा दर्द तो हमेशा, दिलो-जां जिगर रहा है

 

तेरी याद का ये सूरज न कहीं ठहर रहा है

कभी कू-ब-कू रहा है कभी दर-ब-दर रहा है

 

“ये जहान छोड़ देंगे अगर आप जो न आये”

मैं समझ रहा था शायद वो मज़ाक कर रहा है

 

कोई भी अयाँ नहीं है, कहीं भी निशाँ नहीं है

वो मज़ार है जहाँ पर, वहाँ मेरा घर रहा है

 

कहीं उड़ गया परिन्दा, मेरे ख्व़ाब के शज़र से

मेरे हाथ में मरासिम का कटा-सा पर रहा है

 

मुझे जन्नतों की वैसे कोई आरज़ू नहीं है

मेरे दो जहाँ का आलम दरे-यार पर रहा है

 

जो निजात मांगता है मेरी शख्सियत से यारों

मेरा हमसफर रहा है मेरा रहगुजर रहा है

 

जिसे जांनिसार माना जिसे गमगुसार माना

मेरे हाल से हमेशा वही बेखबर रहा है

 

ये तमाम आब पीकर शबोरोज़ सो न जाना

जो गुनाह अब्र का है कभी मेरे सर रहा है

 

बड़ी सुस्त चाल चल के अजी आफताब आया

उसे क्या पता परेशाँ कोई रात भर रहा है

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 28, 2015 at 1:09pm

आदरणीय गिरिराज सर, आपको ग़ज़ल पसंद आई, जानकार आश्वस्त हुआ हूँ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार आपका. 

आपके मार्गदर्शन अनुसार सोच रहा हूँ कि मिसरे में 'कल' लफ्ज़ का प्रयोग कर लूं. निवेदित है- 

“ये जहान छोड़ देंगे कल आप जो न आये”

“ये जहान छोड़ देंगे अगर आप कल न आये”

सादर नमन 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 28, 2015 at 8:23am

बहुत लाजवाब ग़ज़ल कही है , आदरनीय मिथिलेश भाई , दिली मुबारकबाद स्वीकार करें ।

तेरी याद का ये सूरज न कहीं ठहर रहा है

कभी कू-ब-कू रहा है कभी दर-ब-दर रहा है

कहीं उड़ गया परिन्दा, मेरे ख्व़ाब के शज़र से

मेरे हाथ में मरासिम का कटा-सा पर रहा है

जिसे जांनिसार माना जिसे गमगुसार माना

मेरे हाल से हमेशा वही बेखबर रहा है

बड़ी सुस्त चाल चल के अजी आफताब आया

उसे क्या पता परेशाँ कोई रात भर रहा है ----- ये चारों मुझे खूब अच्छे लगे , बधाइयाँ ।

तीसरे शे र मे , अगर और जो एक साथ मुझे ख़टक रहा है , अगर आपको सही लग रहा हो  तो मेरी बात का ख़याल न कीजियेगा ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 27, 2015 at 2:02am

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 27, 2015 at 2:02am

आदरणीय गुमनाम सर जी, ग़ज़ल के मुखर अनुमोदन,  सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 27, 2015 at 2:01am

आदरणीय कृष्ण भाई जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार. 

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 26, 2015 at 10:23am
अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय मिथिलेश जी, दाद कुबूल कीजिए
Comment by gumnaam pithoragarhi on September 25, 2015 at 1:11pm

वाह मिथिलेश जी वाह आपको अक्सर un बहर में लिखते देखा जिन पर कम लिखा गया वाकई बहुत कठिन काम को आप आसान कर देते है वाह बेहतरीन ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,बधाई

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on September 25, 2015 at 12:39pm

बहुत लाजव़ाब गज़ल हुयी है आ० मिथलेश सर..मतले से मकते तक हर शेर शानदार! दाद ही दाद पेश है! सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 24, 2015 at 2:32pm

आदरणीय जयनित जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 24, 2015 at 2:32pm

आदरणीय गोपाल सर, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभार. आपका स्नेह सदैव मेरा मनोबल बढ़ाता है. सादर 

कृपया ध्यान दे...

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