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अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस (21 जून) पर विशेष // --सौरभ

योग वस्तुतः है क्या ?

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इस संदर्भ में आज मनोवैज्ञानिक, भौतिकवैज्ञानिक और विद्वान से लेकर सामान्य जन तक अपनी-अपनी समझ से बातें करते दिख जायेंगे. इस पर चर्चा के पूर्व यह समझना आवश्यक है कि कोई व्यक्ति किसी विन्दु पर अपनी समझ बनाता कैसे है ?

 

किसी निर्णय पर आने के क्रम में अपनायी गयी वैचारिक राह किसी मनुष्य का व्यक्तित्व निर्धारित करती है. क्योंकि किसी निर्णय पर आने के क्रम में सभी की व्यक्तिगत एवं विशिष्ट पहुँच हुआ करती है. व्यक्तिगत एवं विशिष्ट पहुँच का कुल समुच्चय व्यक्तित्व कहलाता है, जिसे स्वनियंत्रण में रखना कई शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक एवं भावनात्मक (षड-आयामी) उपलब्धियो का कारण बनता है.  

एक व्यक्ति का व्यक्तित्व कई अवयवों पर निर्भर करता है, जिसमें उसके वातावरण, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, उसके जीवन का उद्येश्य, उक्त उद्येश्य के प्रति प्रभावी सोच, जीवन की निरन्तरता में सुलभ साधन तथा उसकी शरीर सम्बन्धी क्षमता मुख्य भूमिका निभाती हैं. व्यक्तित्व को निर्धारित करते शरीर सम्बन्धी कारकों को स्थूल और सूक्ष्म दो भागों में बँटा देखा जाता है. स्थूल भाग को बाह्यकरण तथा सूक्ष्म भाग को अन्तःकरण कहते हैं. ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ बाह्यकरण के अवयव हैं, जबकि अन्तःकरण के मुख्यतः चार अवयव हुआ करते हैं  - मनस, चित्त, बुद्धि और अहंकार. इन चारों को एक साथ बोलचाल में ’मन’ भी कहते हैं. दोनों करणों में अन्तःकरण के ये चारों अवयव बहुत ही प्रभावी हुआ करते हैं.

अन्तःकरण का अवयव ’मनस’ बाहरी संसार और व्यक्ति के आन्तरिक पहलू के बीच इण्टरफेस का कार्य करता है. अर्थात एक तरह से मनुष्य के बाहरी संसार और उसकी समझ और चेतना के बीच ऑपरेटिंग सिस्टम की तरह है. ’चित्त’ अनुभूतियों और अनुभवों के भण्डारन का स्थान है. वृत्ति विचार-तरंग है. यह किसी निर्णय तक पहुँचने के लिए प्रतिक्षण सूचनाएँ एकत्रित करता रहता है. जो ’चित्त’ में जमा होती रहती हैं. बुद्धि ’छनना’ है. आवश्यक विचारों के संग्रहण, रुचि के अनुसार अनुभवों के रक्षण तथा अनुभूतियों की तीव्रता को नियत करने का महती कार्य ’बुद्धि’ का है. व्यक्तित्व के अनुसार क्या आवश्यक है और क्या निरर्थक, इसकी समझ ’बुद्धि’ के पास होती है. चौथा अवयव ’अहंकार’ व्यक्ति के स्थूल और सूक्ष्म भावों के सापेक्ष व्यक्ति के होने की समझ को स्थापित करता है. ’यह मैं हूँ’ एवं जीवन के उद्येश्य के प्रति आग्रही होने की दशा को नियत रखने का कारण यह ’अहंकार’ ही है. शरीर का स्थूल स्वरूप सूक्ष्म से कितना प्रभावित होता है या स्थूल का प्रभाव सूक्ष्म पर कितना पड़ता है, यह सारा कुछ किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को गढ़ता है. स्थूल तथा सूक्ष्म के परस्पर सम्बन्ध तथा प्रवृति के अनुसार ही व्यक्तित्व स्वरूप ग्रहण करता है.

योग व्यक्तित्व के स्थूल और सूक्ष्म के बीच अंतर्सम्बन्ध को संयत एवं निर्धारित करने तथा इसे सुचारू रूप से इसे बनाये रखने की विधि अथवा उपाय का नाम है. तभी योग के प्रवर्तक पतंजलि मुनि के योग शास्त्र का दूसरा सूत्र ही ’योगः चित्तवृत्ति निरोधः’ है. अर्थात, चित्त और वृत्ति के लिए संयमन का कार्य योग करता है. यदि चित्त में सार्थक अनुभव हों जो विशिष्ट वृत्तियों का कारण होते हैं. या बाहरी वृत्तियाँ जो चित्त के अनुभवों के गहन अथवा अर्थवान होने का कारण होती हैं, उनके लिए संयमन तथा उनके आकलन का कार्य योग करता है. अतः हम यह भी कह सकते हैं कि शरीर और मन को साध कर पूरी प्रकृति के साथ एकाकार होते जाने की व्यवस्था के लिए योग सक्षम साधन उपलब्ध कराता है. अर्थात, व्यष्टि से समष्टि की अवधारणा को रुपायित होना संभव होता है. इसके लिए शारीरिक क्षमता आवश्यक होती है. इस सबलता से ही मनुष्य़ पशुवत जीवन से आगे के जीवन के गूढ़ अर्थों के प्रति आग्रही हो पाता है.

मनुष्य ऐसी क्षमताएँ विभिन्न शारीरिक मुद्राओं से, आसनों से, श्वसन व्यवस्था में नियंत्रण से, शरीर-शुद्धि से या मनस की चेतना की डिग्री को बढ़ा कर प्राप्त करता है. जिससे मनुष्य का शरीर स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों तरीके से उचित साधन बन जाता है. ऐसे सक्षम शरीर का उपयोग मनुष्य सुगढ़ अन्वेषी अथवा कुशल कारीगर की तरह कर सकता है. यही कारण है कि भारतीय वांगमय ’शरीर ही हम हैं’ की अवधारणा को कभी पोषित नहीं करते. भारतीय विचारों के अनुसार शरीर वृहद या लघु कार्य करने के लिए मिला एक ’साधन’ अथवा ’उपकरण’ मात्र है. मनुष्य का ’हम’ सतत सनातन है. मूलतः, संक्षेप में, इसी या ऐसी ही समझ की स्थापना का कारक योग है.

इस तरह स्पष्ट है कि योग आसन या व्यायाम या श्वसन-प्रक्रिया या शरीर और मन को निरोगी रखने का उपाय मात्र नहीं है. या, यह वृत्तियों या विचारों को साधने का और इस सब से सहज प्राप्य पराभौतिक-लाभों को प्राप्त करने का कारण भी नहीं है. बल्कि इन सभी का समुच्चय है, जहाँ शरीर के स्थूल स्वरूप तथा सूक्ष्म स्वरूप समवेत क्रियाशील होकर मनुष्य को एक सशक्त इकाई बना देते हैं. अन्यथा योग शास्त्र में पतंजलि आसन के लिए जो सूत्र देते हैं, वह है - ’स्थिर सुख आसनम्’.  अर्थात वह शारीरिक मुद्रा या अवस्था जो शरीर को स्थिर रखे और उससे मनुष्य को सुख की अनुभूति हो. यह अलग बात है कि शारीरिक-मानसिक स्थिरता में नैरंतर्य और सुखानुभूति को प्राप्त करने के लिए आगे कई अन्य आसनों का प्रयोग प्रभावी किया गया.

योग के आठ अंग हैं. इसीसे योग को अष्टांग योग भी कहते हैं. इसमें पहले पाँच अंग, यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार को बहिरंग योग तथा धारणा, ध्यान तथा समाधि को अंतरंग योग कहते हैं. अर्थात आसन और प्राणायाम योग के दो अंग मात्र हैं, न कि सम्पूर्ण योग ही आसन और प्राणायाम हैं, जैसी कि साधारण समझ बन गयी है. यम के पांच अन्य अवयव हैं जिनके निरन्तर परिपालन से मनुष्य अपने समाज में स्वयं को सात्विक एवं अनुशासित इकाई की तरह प्रस्तुत करता है. नियम के भी पाँच अवयव हैं जिनके निरन्तर परिपालन से कोई मनुष्य अपने ’स्व’ के साथ व्यवहार करने लायक होता है. आसन विभिन्न शारीरिक मुद्राएँ हैं जिनके निरन्तर अभ्यास से शरीर सबल तथा सक्षम होता जाता है. प्राणायाम के अभ्यास से श्वशन-प्रक्रिया को सुव्यवस्थित और सुसंचालित कर अन्तःकरण के चारों अवयवों (मन) को संयमित किया जाता है. प्रत्याहार का सतत अभ्यास अवांछित तथा अन्यथा लाभ के प्रति निर्लिप्तता के भाव सबल करता है. अर्थात जितने की आवश्यकता हो उतने को ही स्वीकारना या व्यक्तिगत व्यवहार में लाना ! धारणा, ध्यान तथा समाधि एकाग्रता में सोचने तथा उस गहन सोच को विधिवत प्रस्फुटीकरण के कारण उपलब्ध कराते हैं. संक्षेप में कहा जाय तो यही सारी व्यवस्था योग है. 

इस तरह, यह स्पष्ट है कि योग की अवधारणा ’मनुष्य का बहुआयामी विकास’ है, न कि किसी पंथ विशेष के कर्मकाण्ड की प्रतिस्थापना.
**********************
-सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2015 at 6:15pm

आदरणीय मिथिलेश भाई, आपकी हौसलाअफ़ज़ाई के लिए हार्दिक धन्यवाद


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 28, 2015 at 3:36am

आदरणीय सौरभ सर 

योग का परिचय देते इस आलेख के लिए हार्दिक आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 25, 2015 at 12:00am

आदरणीया नीरज शर्माजी, प्रस्तुत आलेख पर आपकी प्रतिक्रिया से आपकी जागरुकता और आपके अदम्य विश्वास का भी पता चलता है. आपने जिन शब्दों में योग के नाम पर फैल रही और फैलायी जा रही भ्रांतियों पर अपनी अप्रसन्नता अभिव्यक्त की हैं, उसके लिए साधुवाद.
योग को सम्पूर्णता में न लेकर जिस तरह से इसे मात्र व्यायाम की श्रेणी में रखने का दौर चला है तथा जिस तरह से इसे मात्र एक रोगनिवारक प्रक्रिया की तरह बताया जा रहा है, वह हम जैसों को चकित भी करता है. योग को सम्पूर्णता में समझने की आवश्यकता है. परन्तु यह भी सही है कि कोई सही तथ्य पढ़ना या जानना भी कहाँ चाहता है ? जबकि आज सुधी समाज ही नहीं आमजन के बीच प्रचारित करने की आवश्यकता है कि योग एक जीवन शैली है. और उस शैली को अपनाने से शरीर का स्वस्थ हो जाना ठीक उसी तरह से है, जैसे हम धरती पर खड़े हो कर लगातार कदमों को आगे-पीछे आगे-पीछे करते हुए बढ़ते जायें तो दूरियां तय कर ही लेंगे.

जो लोग योग सम्बन्धित कई विन्दुओं को लेकर इसके विरोध में खड़े हैं, उनमें से अधिकांश के वक्तव्यों को सुन कर उनकी लचर जानकारी तथा अनभिज्ञता का पता चलता है. लेकिन यह भी सही है कि जो लोग मीडिया में योग को लेकर सकारात्मक रूपसे मुखर हुए हैं उनके समझाने के ढंग तथा उनके तथ्य प्रस्तुतीकरण को देख कर अपार दुख भी होता है.

आपसे बताता चलूँ, कि मुझे अपने चेन्नै प्रवास के दौरान आसन-प्राणायाम तथा योग की अवधारणा पर कक्षायें लेने का कई वर्षों का अनुभव रहा है, आदरणीया.
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 24, 2015 at 11:48pm

आदरणीय हरि प्रकाशजी, आपको यह लेख ज्ञानवर्द्धक लगा. यह मेरे लिए भी संतोष की बात है.  
सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 24, 2015 at 11:48pm

हार्दिक धन्यवाद बन्धु.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 24, 2015 at 11:48pm

आदरणीय विजय निकोरजी, योग और इसकी अवधारणा पर आपसे अनुमोदन पाना अत्यंत आश्वस्तिकारक है. आदरणीय, मैं एक लम्बे समय तक योग और उसकी अवधारणा तथा विशिष्ट आसनों पर कक्षायें लेता रहा हूँ.
आपका सादर आभार.

Comment by Dr. (Mrs) Niraj Sharma on June 24, 2015 at 6:52pm

सही कहा आपने आ. सौरभ जी। आजकल योग को केवल आसन व प्राणायाम  बता कर व कुछ तो इसे फिजियोथिरेपी तक कहकर अपने अग्यान का परिचय दे रहे हैं। इस प्रकार योग को गलत रूप में परिभाषित किया जा रहा है। जबकि योग एक विस्तृत शास्त्र व आठ अंगों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि का समन्वय है। योगः कर्मसु कौशलम्, योगश्चित्त्वृत्ति निरोधः। अपने मन, शरीर पर नियंत्रण का नाम योग है। मैंने भी योग दिवस पर सबसे व खास तौर पर योग गुरू कहलाने वाले ग्यानीजनों से अपील की थी कि कृपया योग को गलत परिभाषित न करें। आपने इस पर विस्तृत जानकारी देकर बहुत सुन्दर कार्य किया है। साधुवाद।

Comment by Hari Prakash Dubey on June 24, 2015 at 6:44pm

आदरणीय सौरभ सर , इस सुन्दर ज्ञानवर्धक लेख / जानकारी  के लिए आपका  आभार  ! सादर 

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on June 24, 2015 at 12:52pm

 gayan parak aalkeh - badhaee mtira

Comment by vijay nikore on June 24, 2015 at 10:47am

आदरणीय सौरभ भाई,

योग पर ऐसे वर्णन की बहुत आवश्यकता थी, अत: आपके लेख से संतुष्टि हुई। यह लेख जन-समूह के लिए नहीं है, अपितु उनके लिए हितकर है जिनकी रूचि / मानसिक प्रवृत्ति इस विषय से प्रभावित है, और वह गहराई में जाना चाहते हैं। आपका लेख गहराई तक ले जाने में सफ़ल है।  आपको हार्दिक बधाई।

सादर,

विजय निकोर

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